Friday 24 August 2012

कवितायेँ

बिलखती नार .
धोळी-धोळी  चांदनी, ठंडी -ठंडी रात ।
सेजां बैठी गोरड़ी,कर री  मन री  बात ।।

बाट जोवतां -जोवतां,  मैं कागां रोज उडाऊं ।
जै म्हारा  पिया रो आवै संदेशो  सोने री चांच मंढाऊं ।।

धोरा ऊपर झुपड़ी,गोरी उडिके बाट !
चांदनी और चकोर को, छुट गयो छ साथ।।

आप बसों परदेस में, बिलखु थां बिन राज १
सूख गयी रागनी, सुना पड्या महारा साज।।

गरम  जेठ रो बायरो,बरसाव है ताप !
ठंडी रात री  चांदनी,देव घणो संताप !!

देस दिशावर जाय कर धन  है खूब कमाया !
घर आँगन  ने भूलगया  ,वापिस घर ना आया।।

पापी पेट रै कारन छुट्या घर और बार ।
कद आवोगा थे पिया,बिलख रही घर री नार ।।

बिलख रही घर री नार, जाव रतन सियालो ।
न चिठ्ठी- न सन्देश  मत म्हारो हियो बालो ।।

बाल पणे ने झालो

सुण रै म्हारी सखी सहेली,
किती सुखी है आ छोटी सी चिड़कली |

जद मन करै रुंख पै आवै,
जद मन करै आकास में फुर सूं उड़ जावै |

सुण रै म्हारी सखी सहेली,
आज्या चालां आपां भी उड़बा बाळपणा मै |

खावां खाटा-मीठा बोरया, अर काचर-मतिरा
आज्या मौज मनावां कांकड़ मै |

आज्या घर बणावां माटी का, गळीयारा में
खेलां चोपड़ - पासा, तिबारा में |

लै खेलां लुख -मिचणी ओ रयुं
तूं लुख्ज्या म्हूँ तनै हैरुं |

किती सुखी है आ छोटी सी चिड़कली
न तो ब्याह की चिंता, न ही सासरै आणों-जाणों
अर न ही घुंघटो पड़े काढणों |

सुण रै म्हारी सखी सहेली,
चाल बाळपणा नै देवां झालो
आज्या हिंडोळा हिंडा सावण-तिजां मै
अर पूजां ईसर-गौर, गणगौरां मै |

लै आपां गुड्डी बणावां चिरमी-चिप्ल्या की
आज ओळयूं आई पाछी ,पेल्याँ की |

बाळपणा = बचपन,झालो = पुकारना, रुंख = पेड़, बोरया = झाड़ी के बेर,कांकड़ = खेत खलिहान,हिंडोळा = झूले, ओळयूं = याद

राह पकड़ तू चल अनवरत

राह पकड़ तू चल अनवरत झंझावातों से डरना मत।
पूर्वजों की यश कीर्ति ,गौरव को ऐ राही ऐसे खोना मत ।।

प्रभु स्वयं अवतरित हुए जिस कुल में,उसके दाग लगाना मत ।
जौहर की आग में कूद पड़ी जो उनका दूध लजाना मत ।।

स्वाभिमानी,गौरव,अमर वीर ,प्रताप का वंशज भूल मत ।
अपना सर्वस्व सुख त्याग कर प्रजा हित ताउम्र रहा रत ।।

समय बदल गया -राज बदल गया, किन्तु कर्त्तव्य न बदला भूल मत ।
तलवार छोड़ कलम पकड़ व्यर्थ समय को टाल मत ।।

इस युग की मृग तृष्णा के इन झुलोनो में झूल मत ।
क्षत्रिय वंश की आदर्श परिपाटी का, ना बना अब मखोल मत ।।

सधे कदम बिना रुके, बढ़ने से बने कारवां भूल मत |
अनावश्यक व्यर्थ प्रपंचों को देना तू अब तूल मत।।
"दिवाली खूब मनाओ "

"दिवाली खूब मनाओ "

सबको मुबारक हो यह पावन दिवाली !
दीप करते है आज , घर की रखवाली ! !
यह पावन पर्व सबको देता है खुशहाली !
दीपो से बच्चे खेलते है जैसे बाग में माली ! !
इस दिन ,कोई जन रहता नहीं उदास !
बेशक हो फटेहाल ,या हो लक्ष्मीके दास ! !
इस दिन खुशियों की ,रहती सबको आश !
खुले आसमान के नीचे ,स्वर्ग का होता है आभाष ! !

इतिहास बताता है,इसदिन सीता माता अयोध्या आयी !
अवधपुरी के नागरिको में ,वे खुशियाँ लेकर आयी ! !
यह पर्व याद दिलाता है, हमे भाइयों का प्यार !
इसे जान कर ,भ्रातृत्व द्रोहियों हो जाओ होशियार ! !
लोग कहते है, यह त्यौहार है धनियों का !
पूजन होता है, रात्रि में गहनों और मणियो का ! !
मेरे दाता मुझे ,धन बताते है मेहनत और ईमानदारी !
तो फिर गरीब को भी ,मनो धनी यही है समझदारी ! !

आओ हम सब मिलकर ,इस पवन पर्व को मनाये !
बुराइयाँ सब छोड़ कर, हम भ्रातृत्व प्रेम को अपनाएं ! !
दिन-दुखियों को ही ,तुम गले से लगाओ !
मेरी यह तम्मना है ,दिवाली तुम खूबमनाओ ! !


हठीलो राजस्थान-60


तीरथ न्हाया नह कदै,
नायो नह शिव-माथ |
छिनेक जुंझ कमावियो,
सारो पुन इक साथ ||३५८||

इस धरती के लोगों ने न कभी तीर्थ-स्थान किया है और न शिव के आगे मस्तक झुकाया है | इन्होने तो क्षण भर रण-भूमि में जूझ कर ही सारा पुण्य एक साथ कमा लिया है |

सुर - धर जावण इण धरा ,
मारग फंटे अनेक |
सूधौ मारग जस भरयौ,
धारा तीरथ एक ||३५९||

इस धरती से स्वर्ग गमन के कई मार्ग जाते है | लेकिन इन मार्गों में एक ऐसा मार्ग है जो सीधा भी है व यश से परिपूर्ण भी | यह मार्ग तलवार की धार रूपी तीर्थ में स्नान करके स्वर्ग जाने का है | अर्थात रण-भूमि में शौर्य प्रदर्शित करते हुए जो शहीद होते है वे सीधे स्वर्ग गमन करते है |

नह जोगां नह तिथ मुरत,
नह अडिक, अध सेस |
धारा तीरथ न्हावतां,
सूधो सुरग प्रवेस ||३६०||

न तो किसी प्रकार के योग की आवश्यकता है और न ही किसी तिथि, मुहूर्त का इन्तजार करना पड़ता है ,अपितु तलवार की धार रूपी तीर्थ में जो स्नान करता है उसे सीधे स्वर्ग में प्रवेश मिलता है क्योंकि उसके कोई भी पाप शेष नहीं रहते अर्थात पाप भी तलवार की धार से (शहादत से) कट जाते है |

हठीलो राजस्थान -59


आंधी जठे उतावली,
पाणी कोसां दूर |
उण धर सांठा नीपजै,
जल जीवां भरपूर ||३५२||

जिस मरू-प्रदेश में प्रचंड आंधियां आती है तथा पानी भी कोसों दूर मिलता है , वहां की धरती पर गन्ने भी उत्पन्न होते है तथा जल-जीवों की भी कमी नहीं है | अर्थात यह धरती ऊसर ही नहीं, उर्वरा भी है |

डरता माणस जावता ,
चोरां रो नित बास |
वो धर आज बसावणो,
पास पास रहवास ||३५३||

जहाँ कभी चोरों की बस्ती थी उस क्षेत्र में लोग जाने से भी डरते थे, वहीँ पर अब घनी आबादी हो गयी है |

विधन बणाई जिण धरा,
रेतीली जल हीन |
काया बदली काम सूं,
माणस हाथ प्रवीण ||३५४||

विधाता णे जिस धरती को रेतीली व बिना जल वाली बनाया, उसे ही मनुष्य णे अपने परिश्रम से उर्वर बनाकर उसकी काया पलट कर दी |

बादल भेजै बरसवा,
नभ-मारग गिर राज |
नहरां आतां इण धरा,
सीधो मारग आज ||३५५||

गिरिराज हिमालय आकाश मार्ग से बादल जल बरसाने हेतु भेजता है | परन्तु नहरें आने से इस धरती पर (जल प्रवाह से) सीधा मार्ग बन गया है |

अन्न धन होसी मोकलो,
चुल्हां बलसी आग |
बंध बणतां जागियौ,
सदियाँ सोयो भाग ||३५६||

इस धरती पर अब प्रचुर अन्न धन्न पैदा होगा | जिससे हर घर में चूल्हे जलने लगेंगे | बाँध बनने के साथ मानो इस मरुधरा का सदियों से सोया भाग्य जाग उठा है | अर्थात अब यहाँ सुख-समृधि विलसने लगेगी |

बंधा नहरां बीजल्यां,
घर घर विद्या-दान |
इण विध आगे आवियो,
नूतन राजस्थान ||३५७||

बाँध,नहरें,विद्युत तथा शिक्षा का आगमन हो गया है | इस तरह से अब एक नया ही राजस्थान हमारे सामने आ गया है |


हठीलो राजस्थान-58
Ratan singh shekhawat, Dec 9, 2010

नगर नगर सैली नई,
चित्र अनोखो चाव |
विवधा सैली सरसतां,
विधनां विवध सुझाव ||३४९||

यहाँ नगर-नगर की रचना में नई नई शैलियाँ है तथा चित्रकारी का अनूठा चाव है | एसा लगता है कि इनकी रचना करते हुए विधाता ने अपनी सारी ही कला सृष्टि को इन शैलियों में ढाल दिया है |
रंग रूप आकर रो,
चित्रण करे सवाय |
इण धर एक विसेसता,
अण रूपी चित्राय ||३५०||
रंग रूप व आकर को देखकर तो सभी चित्रण करने वाले सौन्दर्ययुक्त चित्रण करते है किन्तु इस प्रदेश की यह विशेषता है कि यहाँ पर बिना देखि घटना को भी लोग चित्रित कर देते है जिसके अनुसार शौर्य प्रदर्शित कर लोग उस चित्रण को सही सिद्ध कर देते है |
रजपूती सैली अमर,
उण में भेद अनेक |
जाणे माणस बाग़ में,
नानां फूल विवेक ||३५१||

चित्रों की शैलियों में राजपूती शैली अमर है और उसमे भी अनेक भेद है ,मानो हृदय रूपी उद्यान में भावना के नाना फूल खिलें है |

हटीलो राजस्थान -57
Ratan singh shekhawat, Dec 6, 2010

धनी खगां, वचना धनी,
धनी रूप सिणगार |
अख खजानों इण धरा,
धनी साहित संसार ||३४३||

इस धरती पर तलवार के धनियों का (शूरवीरों का) ,व वचनों के धनियों का (दृढ प्रतिज्ञों का) व सुन्दरता व श्रृंगार के धनियों का अक्षय भंडार है | इसीलिए इनका वर्णन करने हेतु रचा गया यहाँ का साहित्य भी समृद्ध है |
रतन जड़ित भीतां छतां,
झीणी कोरण झांख |
सोधावै इतिहास गल,
मोदावै मन-आँख ||३४४||

यहाँ की इमारतों की दीवारों व छतों पर रत्न जड़े दिखाई देते है किन्तु पैनी दृष्टि से देखने पर इनके अन्दर इतिहास की बाते दिखाई देती है जिससे आँखे व मन आनंद से मुदित हो जाता है |
महलां, दुरगां मंदिरां,
लाग्या हाथ प्रवीन |
बरस सैकड़ा बीत गया,
दीसै आज नवीन ||३४५||

दक्ष हाथों से निर्मित यहाँ के दुर्ग,महल व मंदिर जिनका निर्माण हुए सैकड़ों वर्ष व्यतीत हो गए आज भी नवीन दिखाई देते है |

अमर नाम राखण इला,
पग पग खड़ा निवास |
अजै समेटयां आप में,
फुटराई इतिहास ||३४६||

इस धरती पर अमर नाम रखने के लिए यहाँ जगह जगह ऐसी इमारते खड़ी हुई है जो अब तक भी अपने में उत्कृष्ट सौन्दर्य और इतिहास समेटे हुए है |

देखो आंख्यां एक टक,
मंदिर मूरत साथ |
सुन्दरता अर स्याम नै,
नम नम नावो माथ ||३४७||

अपनी आँखों से अपलक यहाँ के मंदिरों और मूर्तियों को देखो तथा मंदिरों के इस अदभुत सौन्दर्य व मूर्ति में स्थित प्रभु के दर्शन कर इन्हें बारम्बार अपना मस्तक नवाओ |

विधना रचिया जतन सूं,
घोटक सुभट सु-नार |
चित्र बणातां इण धरा,
कीधो घणो सुधार ||३४८||

विधाता ने बहुत यत्न से यहाँ के घोड़ों,वीरों और श्रेष्ठ नारियों की सृष्टि की है | इस धरती पर इनकी रचना करते हुए विधाता ने भी अपनी रचना कला में अदभुत सुधार किया है |

हठीलो राजस्थान-56
Ratan singh shekhawat, Dec 5, 2010

सबल साहित इण धरां,
सबल सुभट निवास |
इक इक दूहा उपरै,
नित नूतन इतिहास ||३३७||

इस धरती का साहित्य समृद्ध है यहाँ बलवान योद्धा निवास करते है | दूसरी जगह तो वीरों की गाथाओं का वर्णन करने के लिए कविताओं की रचना की जाती है लेकिन यह राजस्थान ऐसा प्रदेश है कि कवि अपनी कल्पना से जैसे पराक्रम का वर्णन करता है उसी प्रकार का पराक्रम शूरवीर युद्ध में दिखाता है |
सत पूरण साहित में,
पूरी निज अनुभूत |
कवियां रचियो ओ नहीं,
रचियो रण-अवधूत ||३३८||
यहाँ के साहित्य में अपनी सम्पूर्ण अनुभूति व पूर्ण सत्य छिपा हुआ है क्योंकि इस साहित्य की रचना शूरवीरों ने की है न कि कवियों ने | अर्थात कथानक के रचनाकार स्वयं शूरवीर थे ,कवि ने उसे केवल भाषा प्रदान की है |

ज्यूँ बादल में बिजली,
म्यान बिचै ज्यूँ नेज |
सूरा रस साहित्य में ,
अगनी में ज्यूँ तेज ||३३९||

जिस प्रकार बादल में बिजली है ,म्यान में तलवार है तथा अग्नि में तेज है, वैसे ही साहित्य में अन्य रसों में वीर-रस है |

जिण धर साहित वीर रस,
साहित उण सिणगार |
साथै दोनूं रस सदा ,
किसो विरोधाचार ||३४०||

जिस भूमि के साहित्य में वीर रस का बाहुल्य है वहां के साहित्य में श्रृंगार रस का भी बाहुल्य देखा गया है | यह दोनों रस हमेशा साथ रहते है | यह कैसा विरोधाभास है ? सामान्य दृष्टि से श्रृंगार व वीरत्व विरोधी आचरण है किन्तु क्षात्र-धर्म की परम्परा में सुख भोग व कातर की पुकार पर सर्वस्व न्योछावर कर देने की परम्परा अक्षुण है |

संतां अमृत वाणियाँ,
वेद वेदान्तां सार |
एक सरीसी बह रही,
सान्त तणी रस-धार ||३४१||

संतो की वाणियों से प्रवाहित होने वाला भक्ति का अमृत रस व ज्ञानियों के मुख से प्रकट होने वाला वेदान्त का उज्जवल सार यहाँ पर एक साथ बहता हुआ शांत रस की धारा सा प्रतीत होता है |

जलमै साहित जीवणों,
जुग जुग धरा जरुर |
भजन भाव भगवान् रा,
भगती रस भरपूर ||३४२||

इस धरती पर युग-युग तक जीवित रहने वाले शाश्वत साहित्य का सृजन हुआ है , जो भगवान् की आराधना और भक्ति-रस से पूरित है |

हठीलो राजस्थान -55
Ratan singh shekhawat, Dec 2, 2010

आभै उतरी, पीत पट,
लाल नैण तन हार |
सोई रूठी भाम ज्यूँ,
झालर री झणकार ||३३१||

अरुणारे नयनों वाली संध्या -सुन्दरी पीले वस्त्र पहन तथा तन पर तारक-हार धारण किए आकाश में अवतरित हुई | इसके साथ ही मंदिरों में आरती के समय झालर की झंकार बज उठी व इसके साथ ही रूठी हुई स्त्री समान संध्या सो गई व रात्री प्रकट हो गई |
दिन सूं आगी रात नित,
बोलै नीं मिल बैण |
दो दिल साथ मिलाविया,
सांझ सहेली रैण ||३३२||
दिन के बाद प्रतिदिन रात आती है परन्तु ये आपस में साथ रहकर बात भी नहीं कर सकते लेकिन संध्या रूपी सहेली ने आज इन दो दिलों को (दिन व रात्री को) आपस में मिला दिया है |

सुरां तणी आ सोमता,
चाँद तणी मुस्कान |
नभ- गढ़ उतरी चांनणी,
गोर रूप गुण खांन ||३३३||

देवताओं की सोम्यता और चंद्रमा की सी मुस्कान लेकर यह चांदनी जिसका गौरव पूर्ण है जो गुणों का खजाना है - आकाश रूपी गढ़ से उतरी है |

हंसती आ हंसागवण ,
मनां दाह मेटीह |
ठंडी गोरी हिम जिसी,
हिम-कर रो बेटीह ||३३४||

हंसो पर सवारी करने वाली हंसती हुई जब ये संध्या आई तो मन की अग्नि को ऐसे शांत करती हुई प्रतीत हुई मानों चंद्रमा की पुत्री ने आकर शीतलता प्रदान की हो |

नदियाँ नित सूखी रहै,
जद कद सजली धार |
साहित रस भागीरथी ,
इण धर सदा बहार ||३३५||

बहुत सी नदियाँ सूखी रहती है | वर्षा होने पर इनमे कभी-कभी जल प्रवाहित होता है पर साहित्य -रस रूपी भागीरथी (गंगा) इस धरती पर हमेशा बहती रहती है |

सूरा रस संसार रो ,
तोलो हेकण साथ |
भारी पलड़ो इण धरा,
भारी इण रो गाथ ||३३६||

सारे संसार के वीर रस व वहां की वीरता की कथाओं को एक पलड़े में रखा जाय व दुसरे पलड़े में राजस्थान के वीर रस व यहाँ की वीर गाथाओं को रखा जाय तो भारी पलड़ा इस राजस्थान की धरती का ही रहेगा |

हठीलो राजस्थान-54
Ratan singh shekhawat, Nov 30, 2010

नभ साड़ी, खग घूघरा,
ऊसा लाली गाल |
इण विध प्राची सुन्दरी,
दिन मणि धारी माल ||३२६||

प्राची रूपी सुन्दरी का वर्णन करते हुए कवि कहता है - आकाश तो इसकी साड़ी है ;पक्षी घुंघरू है, उषा की ललाई इसके गाल है और सूर्य (उगता हुआ) इसका तिलक है | इस प्रकार यह पूर्व दिशा रूपी सुन्दरी अपने रूप की घटा बिखेरती हुई अवतरित हो रही है |
सह जग जाग, जगावणों,
जागत जगती जोग |
ज्यूँ घण कुटमी गेह में,
जागत सुत इकलोत ||३२७||
जगत ज्योति सूर्य के जगते(उदय होते) ही सब जग जाग उठता है तथा सर्वत्र जागरण की हलचल होने लगती है ,वैसे ही जैसे बड़े परिवार वाले घर में छोटा बच्चा जागकर सब घर वालों को जगा देता है |

उगतां तेज अमावड़ो,
किम झेलै सुर नाह |
भेजी बदली अपसरा,
दिनकर मेटी दाह ||३२८||

सूर्य के उदित होने पर अपार तेज को कैसे सहन किया जाय ? इसीलिए इंद्र ने सूर्य के ताप को कम करने के लिए बदली रूपी अप्सरा को भेजा है |

देखै रजनी लाख चख,
तो पण नित अन्धराय |
दिन रै केवल एक चख,
कण कण जोत जगाय ||३२९||

रात्री अपने लाखों तारों रूपी नेत्रों से देखती है फिर भी हमेशा अँधेरा ही बना रहता है | इसके विपरीत दिन के केवल ही चक्षु सूर्य होता है ,तो भी वह कण कण में ज्योति जगा देता है | आशय यह है कि लाख कपूतों की अपेक्षा कुल का दीपक एक सपूत श्रेष्ठ होता है |

कर सूं छुट्यो कनक घट,
डूब्यो नभ-सर मांह |
उड़गण मुळकै उपरै ,
सांझ सुन्दरी स्याह ||३३०||

सुन्दरी संध्या काल के हाथ से स्वर्ण कलश छुट करके आकाश रूपी समुद्र में डूब गया (छिपते सूर्य के प्रति कल्पना है) हाथ से छूटे हुए कलश को देखकर तारे हंस दिए है (तारे प्रदीप्त होने लगे) व संध्या सुन्दरी का मुंह हंसी को सुनकर क़ाला पड़ गया | (अर्थात रात्री का आगमन हो गया)|

हठीलो राजस्थान-53
Ratan singh shekhawat, Nov 29, 2010

हिम-गिर सूँ आई हवा,
की लाई संदेस ?
सदा रुखालो देस रो ,
हिम-गिर राखो सेस ||३२०||

हिमालय पर्वत से आती हुई हे हवा ! तुम क्या सन्देश लाई हो ? उत्तर- हमेशा देश की रखवाली करने वाला हिमालय आज भी देश का रखवाला है |
उजल भारत भाल हो,
होसी रगतां लाल |
सौगन गढ़ चितौड़ री,
सौगन खनवा ताल ||३२१||
भारत भूमि का उज्जवल भाल यह हिमालय अब रक्त से लाल होगा (वीर इसकी रक्षा के लिए अपना बलिदान देंगे) | देश वासियों को गढ़- चितौड़ तथा खानवा के रण-क्षेत्र की शपथ है कि वे इसकी रक्षा के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दें |

हिम-गिर सुणों निसंक व्है,
इतो न निरबल जोय |
थूं रखवालो देस रो,
महां रखवाला तोय ||३२२||

हे हिम गिरी ! तुम निश्शंक होकर सुनों, हमें इतना निर्बल मत समझो क्योंकि तुम देश के रखवाले हो तो हम तुम्हारे रखवाले है |

पाछो जा रै पवन थूं,
कहदै हिम-गिर साँच |
बिण माथै रण मांडस्या,
आतां तौ पर आँच ||३२३||

हे पवन ! तुम वापस जाकर हिमालय से कह देना कि तुम पर संकट आने पर हम सिर कटने पर भी लड़ते रहेंगे |

जल देतां न दुभांत कर,
सुण सागर मरजाद |
जिण दिन रगतां भींजसी ,
उण दिन करसी याद ||३२४||

हे सागर ! तुम भी मर्यादा की दुहाई देकर राजस्थान के साथ वर्षा की दृष्टि से भेदभाव बरतते हो लेकिन जब शूरवीर अपने रक्त से इस धरती को भिगोएँगे उस रोज तेरी मर्यादा भी लज्जित होगी |

सदियाँ पैली रुठगी,
नदियाँ रूप घटाय |
सागर अजै मनायले,
आण जाण खुल जाय ||३२५||

हे समुद्र ! तेरा उपरोक्त भेदभाव पूर्ण स्वभाव देखकर इस प्रदेश में सदा बहने वाली नदियों ने (सरस्वती आदि) तेरे से रुष्ट होकर अपने स्वरूप को घटा लिया है ,अर्थात लुप्त हो गई है | अब भी समय है तू भेदभाव स्वभाव को छोड़कर इन नदियों को प्रसन्न कर ले ताकि इनका आवागमन फिर चालु हो जाय |

हठीलो राजस्थान-52
Ratan singh shekhawat, Nov 28, 2010

सिर ऊँचो थिर डुंगरां,
मोटो नहीं गुमान |
सिर ऊँचो राखै सदा,
रेती कण रजथान ||३१३||

यहाँ के (राजस्थान के) स्थिर पहाड़ों के मस्तक यदि ऊँचे है तो इसमें कोई अभिमान करने योग्य बात नहीं है | क्योंकि इस राजस्थान में तो मिटटी के कण भी सदा अपना मस्तक ऊँचा रखते है |
अरियां मन आडो-अडिग ,
आलम भंजण आण |
आजादी रो आसरो ,
आडोबल जग जाण ||३१४||
शत्रुओं के लिए सदा अजेय,संसार के गर्व का भंजन करना ही जिसकी प्रतिज्ञा है व जो आजादी की रक्षक है ऐसा अरावली पर्वत संसार में विख्यात है |

अनमी, सजलो, अडिग नित,
तन कठोर , मन ताव |
गिर आडा रा पांच गुण,
सूरां पांच सभाव ||३१५||

अरावली पर्वत के यह पांच गुण है व शूरवीर के यही पांच स्वाभाव है - दृढ प्रतिज्ञा,सजलता (करुणा व उदारता),अडिगता,शरीर की दृढ़ता व मन में आवेग युक्त उत्साह |

सूखो तन, तृण सीस पर,
हिवडे घणी हरीह |
धर धूंसा भड़ जल मणां,
झूंपडियां जबरीह ||३१६||

तन जिनका सुखा हुआ है अर्थात जिनकी लिपाई-पुताई भी ठीक प्रकार से नहीं हो सकी है ,मस्तक पर जिनके तिनके है अर्थात जिनके ऊपर छप्पर है | लेकिन जिनका ह्रदय हरा है ,अर्थात जिनके अन्दर रहने वाले लोग शूरवीर व उदार है ऐसी झोंपड़ियों की कहाँ तक प्रसंसा की जाय जिनमे पृथ्वी को कंपा देने वाले शूरवीर जन्म लेते है |

अन-धन देवै देस नै ,
सीस करै निज दान |
सती धरम सरसै सदा,
झुंपडियां वरदान ||३१७||

यह झौंपडियां का ही प्रताप है कि यह देश को अन्न व धन देती है तथा अपने सिर का दान देने वाले योद्धा पैदा करती है | सतीत्व व धर्म इन्ही में पैदा होता है |

गढ़ कोटां गोला गिरै,
चोटां सिर हिमवान |
झूंपड़ पहरी देस रा,
विध रो अजब विधान ||३१८||

गढ़ों और किलों पर गोले बरसते है तथा हिमालय पर्वत के सिर पर चोटें पड़ती है ,पर विश्व का यह अजीब विधान है कि ये झोंपड़ियाँ देश की प्रहरी है अर्थात इनमे जन्म लेने वाले वीर ही देश की रखवाली करते है |

लाय बलै, बिरखा चवै ,
आंधी सूं उड़ जाय |
जलम्या भड़ वां झूंपडयां,
सुजस जुगां नह जाय ||३१९||

ये झोंपड़ियाँ अग्नि से जल जाती है और इनमे वर्षा का पानी भी टपकता है | ये आंधी से उड़ जाती है ,परन्तु इन झोंपड़ियों में जन्मे लोग ऐसे सुकर्म करते है जिससे उनका सुयश युगों तक नष्ट नहीं होता है |

हठीलो राजस्थान-51
Ratan singh shekhawat, Nov 26, 2010

सट रस भोजन सीत में,
पाचण राखै खैर |
पान नहीं पर कल्पतरु ,
किण विध भुलाँ कैर ||३०७||

(जिस फल के प्रयोग से ) सर्दी के मौसम में छ:रसों वाला भोजन अच्छी तरह पच जाता है | उस कैर (राजस्थान की एक विशेष झाड़ी) को किस प्रकार भुलाया जा सकता है जो कि बिना पत्तों वाले कल्पतरु के समान है |
कैर,कुमटिया सांगरी,
काचर बोर मतीर |
तीनूं लोकां नह मिलै,
तरसै देव अखीर ||३०८||
कैर के केरिया , सांगरी (खेजडे के वृक्ष की फली) काचर ,बोर (बैर के फल) और मतीरे राजस्थान को छोड़कर तीनों लोकों में दुर्लभ है | इनके लिए तो देवता भी तरसते रहते है |

जोड़ा मिल घूमर घलै,
घोड़ा घूमर दौर |
मोड़ा आया सायबा ,
खेलण नै गिणगोर ||३०९||

जोड़े आपस में मिलकर घूमर नाच नाचते है | घोड़े घूमर दौड़ते है | पत्नी कहती है , हे साहिबा ! आप गणगौर खेलने हेतु बहुत देर से आए है |

अण बुझ्या सावा घणा,
हाटां मुंगी चीज |
सुगन मनावो सायबा ,
आई आखा तीज ||३१०||

अबूझ (ऐसे विवाह मुहूर्त जिनके लिए पंचांग नहीं देखना पड़ता) सावों में आखा तीज (अक्षय तृतीया) का महत्व अधिक है क्योंकि इस समय सूर्य उच्च का होता है जिसके कारण अन्य ग्रहों के दोष प्रभावित नहीं कर सकते | इसीलिए कवि कहता है - अबूझ सावे तो बहुत है पर आखा तीज आ गई है इसी पर हे साहिबा (पति) विवाह का मुहूर्त निश्चित करदो यधपि इस अवसर पर वस्तुएं महंगी रहेगी |

रज साँची भड रगत सूं ,
रोडां रगतां घोल |
इण सूं राजस्थान में ,
डूंगर टीबां बोल ||३११||

यहाँ की मिटटी को शूरवीरों ने अपने रक्त से रंगा है व पत्थरों को खून से पोता है , इसीलिए राजस्थान के पहाड़ और रेतीले टीले (निर्जीव होते हुए भी) आज बोलकर उनकी गाथाओं को सुना रहे है |

आपस में व्हे एक मत ,
रज-कण धोरां रूप |
आंधी बरसा अडिग नित,
सिर ऊँचो सारूप ||३१२||

राजस्थान की साथ जीने मरने की परम्परा से ही यहाँ के मिटटी के कणों ने भी एकमत होना सीखा है ,इसीलिए ही इक्कठे हुए रज कणों से यह टीले बन गए है | संघर्षों में अडिग रहने की परम्परा से ही ये टीले आंधी व वर्षा में भी अपने मस्तक को ऊँचा किये हुए अडिग खड़े रहते है |

हटीलो राजस्थान-50
Ratan singh shekhawat, Nov 16, 2010

लाल उमंग ,लाली धरा,
चोली लाल फुहार |
रोली लाल गुलाल मैं,
होली लाल त्युंहार ||३०१||

फाल्गुन के महीने में लोगों के ह्रदय उमंग से भरे हुए है,जगह-जगह गुलाल के बिखर जाने से धरती लाल हो गई है ,लाल रंग व गुलाल से ललनाएं होली खेलती हुई चोलियों पर रंग फैंक रही है ,एसा यह रंगीला त्यौहार होली आ गया है |
डंडिया नाच गुवाड़ में,
हंडियां खरलां साज |
रमणी गैरां मोद-मन<
रामा सामा आज ||३०२||
होली के दुसरे दिन का वर्णन करते हुए कवि कहता है - गांव के चौक में गिंदड़ (डंडिया रास) का खेल हो रहा है | खरलों में हंडिया सजी हुई है | युवतियां मस्त होकर गेर खेल रही है | आज रामा-श्यामा का दिन है |

चेत सुमास बसंत रितु,
घर जंगल सम चाव |
गोरी पूजै गोरड़यां,
बाँवल फोग बणाव ||३०३||

बसंत ऋतु के चेत्र मास में घर और जंगल सब जगह प्रसन्नता की लहर है | स्त्रियाँ फोग (राजस्थान में होने वाला एक विशेष पौधा) का बाँवल बना कर गोरी की पूजा कर रही है |

निमजर फूली नीमडै,
लहलायौ सह गात |
हँसे ज्यूँ आकास में,
तारा गुदली रात ||३०४||

चेत में मास में नीम के पेड़ मिन्झर से लद गए है | ये ऐसे लग रहे है जैसे धुंधली रात में तारे दमक रहें हो |

फूल्यो आज पलास बन,
लाली नजर पसार |
रज गुण सूर सभाव रौ,
सकल धरी साकार ||३०५||

आज जिधर नजर दौड़ाओ,उधर जंगल में पलाश के पेड़ लाल फूलों से लहक रहे है | मानों शूरवीरों की धरती का रजोगुण ही इस लालिमा के रूप में साकार हो रहा है |

रोहीडै कलियाँ खिली,
रुड़ी, रूप प्रवीण |
जाणे बहु बजार री,
रुपाली गुण हीण ||३०६||

रोहिडे (एक वृक्ष) की गंध हीन लाल-लाल कलियाँ बड़ी रुचिर लग रही है परन्तु ये ऐसी ही है , जैसे वारवधुएँ (वेश्याएं) केवल देखने में ही सुन्दर है ,गुणों में नहीं |

हठीलो राजस्थान-49
Ratan singh shekhawat, Nov 16, 2010

धरती ठंडी बायरी,
धोरा पर गरमाय |
कामण जाणे कलमली,
पिव री संगत पाय ||२९५||

धरती पर बहने वाली शीतल वायु टीलों पर से गुजर कर गर्म हो जाती है ,जैसे प्रिय का संपर्क पाकर कामिनी गर्मी से चंचल हो उठती है |
सीतल पण डावो घणों,
दिलां आग लपटाय |
डावो बण तूं डावड़ा,
जालै फसलां जाय ||२९६||
उतर का शीत पवन यधपि शीतल है तथापि बहुत शरारती (चालाक)है ,जो दिलों में तो प्रिय मिलन की आग सुलगा देता है और उदंडी लड़के की तरह फसलों को जला देता है | "दावे" (ठण्ड) से फसलें जल जाती है |

लू ताती बालै नहीं,
धन जन सह सरसाय |
आ बालण उतराद री ,
रोग सोग बरसाय ||२९७||

लूएँ जलाती नहीं है , बल्कि धन-जन सबको सरसा देती है | किन्तु वह दुग्ध्कारी उतर वात(बर्फीली हवा) तो रोग और शोक बरसाने वाली है |

उमंगै धरती उपरै,
पेडां मधरो हास |
मत गयेंद ज्यू मानवी ,
आयो फागण मास ||२९८||

धरती पर उमंग छा गई है और पेड़ों पर मंद मंद मुस्कान छाने लगी है अर्थात नई कोंपले आने लगी है | फागुन मास मानवों के लिए मस्त हाथी की सी (उन्माद) लाने वाला है |

मेला फागण मोकला,
भेला भाग सुभाग |
रेला दिल दरयाव रा,
खेला गावै फाग ||२९९||

फागुन में अनेक मेले भरते है ,जिनमे सबको हर्षोल्लास होता है | सब मुक्त ह्रदय से रंग-रेलियाँ करते है तथा खेलों (लोक नृत्यों) में फाग के गीत गाते है |

पीला जाय सुहावणा,
धरती पीली रेत |
सखियाँ पोला पट किया,
सरसों पीला खेत ||३००||

बसंत ऋतू के आगमन पर सरसों के पीले खेत जहाँ एक और सुहावने नजर आते है ,वहीँ दूसरी और पीली बालू मिटटी से युक्त धरती शोभायमान हो रही है | सखियों ने पीले वस्त्र धारण कर रखें है | सर्वत्र पीली शोभा छाई है |

हठीलो राजस्थान-48
Ratan singh shekhawat, Nov 12, 2010

बरसालो बरसै भलो,
हवा न बाजै लेस |
धोरां में धापा करै,
मोरां हंदो देस ||२८६||

बरसात में अच्छी वर्षा हो व हवा न चले तो रेगिस्तानी इलाके में भरपूर पैदावार होती है | एसा यह मरुप्रदेश है जहाँ मोर-पक्षी अधिक होते है |
बिन बादल आकाश नित,
खै खै पवन चलाय |
काल पड़न्तां इण धरा,
मऊ मालवै जाय ||२८७||
आकाश में कहीं बदल दिखाई नहीं देते और सनन सनन हवाएं चल रही है | स्पष्ट ही ये अकाल के पड़ने के लक्षण है | अकाल पड़ने पर यहाँ के लोग पशुओं को लेकर मऊ-मालवे (मध्य-प्रदेश) की और चल देते है |

धर ऊपर सुरंगी धरा,
जिण विध देखो आय |
काल पड़न्तां कामणि,
धन बालक रुल जाय ||२८८||

वर्षा होने पर यह धरती स्वर्ग सी दिखाई देती है ,परन्तु अकाल पड़ने पर यहाँ के नर,नारी,बालक तथा पशुधन सब अन्य प्रदेशों में पलायन करने को विवश हो जाते है |

बाजै सीली बायरी,
ऊपर गाजै मेह |
सीयालो आयो सखी,
कऊं हथाई नेह ||२९३||

ठंडी हवा चल रही है और ऊपर से वर्षा के बादल गरज रहे है | हे सखी ! शीत ऋतू आ गई है | इसमें तो अलाव पर तपते हुए आपसी बातचीत करना ही प्रीति वर्धक होता है |

पीणों, पचणों , पैरणों ,
सरदी साथै आय |
खाणों , रैणों खेलणों ,
सीयालै सुख दाय ||२९४||

पानी,पचना और पहनना ये सर्दी के साथ आते है | साथ ही भोजन ,रहना और खेलना ये सब शीत ऋतू में ही सुखदायी होते है |

हठीलो राजस्थान-47
Ratan singh shekhawat, Nov 7, 2010

हरिया गिर,बन,ढोर,खग,
हरी साख हरखाय |
मन हरिया मिनखांण रा,
बिरहण एक सिवाय ||२८०||

हरे पहाड़,वन,पशु,पक्षी,हरी भरी फसल आज सभी वर्षा के आने से प्रसन्न है | एक विरहणी को छोड़कर सभी मनुष्यों के मन हर्षित हो गए है |
भादरवा बरसो भल,
तौ बरस्यां सरसाय |
धरणी, परणी, धावडी,
जड़ जंगम जंगलाय ||२८१||

भाद्रपद के महीने में हुई बरसात बहुत अच्छी होती है | इससे ही प्रकृति में हरियाली छाती है | धरती ,विवाहित स्त्रियाँ व कन्याओं सहित सभी जड़ व चेतन सरसित हो उठते है |

भादरवै गोगा नमी,
गोगाजी रै थान |
इण धर मेला नित भरै,
गावै तेजो गान ||२८२||

भादवे में महीने में गोगा-नवमी पर गोगाजी के स्थान पर मेला भरता है किन्तु इस धरती पर प्रतिदिन ही मेले भरते रहते है ,जहाँ तेजस्वी लोगों के गीत गाये जाते है |

बिरख बिलुमी बेलड़ी,
तन रंग ढकियो छाय |
ज्यूँ बूढ़ा भरतार पर,
नई नार छा जाय || २८३||

बेलें पेड़ों के चारों और लिपट गई है और अपने रंग-बिरंगे फूलों से उसे ढक लिया है ,वैसे ही ,जैसे कोई नवयौवना अपने वृद्ध पति पर पूरी तरह छा जाती है |

जीमण लासां जुगत सूं,
मिल मिल भीतडलाह |
लुल लुल लेवै लावणी,
गावै गीतडलाह ||२८४||

इस प्रदेश के किसान आवश्यकता पड़ने पर सब मिलकर एक किसान की मदद के लिए काम करते है व उस दिन उसी के यहाँ भोजन करते है जिसको "ल्हास" कहते है | फसल की कटाई (लावणी) के लिए गांव के मित्रगण "ल्हास" पर जाते है ,प्रेम पूर्वक गीत गाते हुए फसल की कटाई करते है व वहीँ पर भोजन करते है |

चढियो मालै छोकरों,
हथ गोपण हथियार |
जीव जलमतां धान में ,
चिड़िया दल भरमार ||२८५||

फसल में दाना पड़ने पर चिड़ियों के असंख्य झुंडों से उसकी रक्षा करने के लिए कृषक पुत्र हाथ में गोफन (जिससे दूर तक पत्थर फेंका जा सकता है) लेकर मचान पर चढ़ बैठा है |

हठीलो राजस्थान-46
Ratan singh shekhawat, Nov 4, 2010

चालो खेत सुवावणा,
झिल्ली री झणकार |
बाजरियो झाला दिवै,
मारगियो मनवार ||२७४||

सुहावने खेतों में चलो जहाँ झींगुर की झंकार गूंज रही है | बाजरे के सिट्टे हिल हिल कर संकेतों से बुला रहे है तथा खेत का मार्ग आने की मनुहार कर रहा है |

हींड़ो लूमै होड सूँ,
तीज तणों त्युंहार |
सखियाँ मारै कोरड़ा,
पिव रो नाम पुकार ||२७५||

तीज के त्यौंहार पर सखियाँ होड से झुला झूल रही है तथा एक दूसरे को अपने अपने पति का नामोच्च्चारण कराने हेतु कोड़े मार रही है |

बजै नगारा पीर नभ,
मुख बीजल मुस्कान |
रिम झिम आभै उतरी,
बिरखा बहु समान ||२७६||

आकाश जिसका पीहर है ,वहां गर्जना रूपी नगारे बज रहे है व् जिसकी मुस्कान से बिजली चमकती है ऐसी दुल्हन वर्षा आकाश से रिम-झिम करती हुई धरती पर उतर रही है |

डर मत बिरखा बिनणी,
सासरियो सरताह |
कोमल रज कांटा नथी ,
धरती पग धरताह ||२७७||

हे वर्षा बहू ! तुम धरती पर उतरते हुए डरो नहीं | तुम्हारी ससुराल सब प्रकार से संपन्न है | यहाँ की मिटटी कोमल है और कहीं कांटे नहीं है |

काली कांठल घोर रव,
सज धज बिरखा साज |
जाणे गढ़ गिरनार सूँ ,
उतरी कामण आज ||२७८||

उमड़ते -घुमड़ते काले बादलों के रूप में प्रचंड गर्जना के साथ सज-धज कर वर्षा वधू आई है | ऐसा लगता है ,जैसे गढ़ गिरनार से कोई कामिनी उतरी हो |

मटमैली सासू धरा,
रुखा सूखा केस |
आई बिरखा बिनणी ,
लाई नूतन बेस ||२७९||

पृथ्वी रूपी सास, बिरखा -बिनणी (वर्षा वधू) के आगमन से पूर्व मटमैली और रुक्ष केशों वाली थी | अब वर्षा वधू उसके लिए नया परिधान लायी है |(वर्षा धरती को हरियाली से आच्छादित कर देती है )

हठीलो राजस्थान-45
Ratan singh shekhawat, Nov 1, 2010

नभ लहराती बादली,
बीजल रेख बणाय |
ज्यूँ काजलिया चीर पर,
गोटो कोर खिंचाय ||२६८||

आकाश में घुमड़ती हुई बादली के बीच विद्युत रेखा ऐसी दिखाई दे रही है जैसे काले रंग की ओढ़नी पर गोटे की किनारी जड़ी हो |

सरवर पाल सुहावणी,
की सोभा केणीह |
मृग नाचै, लटका करै,
मटका मृग नैणीह ||२६९||

ऐसे सरोवर की सुन्दर पाल की शोभा का कैसे वर्णन किया जा सकता है जहाँ पर वर्षा के बाद मस्त हुए मृग क्रीड़ा करते है व मृगनयनी चंचल स्त्रियाँ जल भरने के लिए आती है |

मोर नाचवै खेत में,
और ढोर मझ कीच |
छम छम करता छोकरा,
नाचै नाडी तीर ||२७०||

खेतों में मोर नाच रहे है तथा कीचड़ में पशु प्रसन्न होकर लोट रहे है | इधर बालक ताल-तलैयों में जल-क्रीड़ा का आनंद ले रहे है |

कुरजां थे आकास में,
कित जावो, की काम ?
इण धर रो संदेसड़ो,
पहुंचावण उण धाम ||२७१||

हे कुरजां ! तुम आकाश में कहाँ तथा किस काम से जा रही हो ? क्या तुम इस धरती से किसी विरहणी का सन्देश उस स्थान उसके प्रियतम के पास पहुँचाने के लिए जा रही हो |

बूंदा साथै बरसिया ,
हाथ छुवां मुरझाय |
मखमल जिम मिमोलिया ,
वसुधा रूप बढ़ाय ||२७२||

वर्षा की बूंदों के साथ बरसने वाली तथा हाथ के छू देने भर से मुरझा जाने वाली मखमल-सी मुलायम वीर-बहती (सावन की तीज) पृथ्वी की शोभा में चार चाँद लगा रही है |

दल बादल सा उमडिया,
आथूणा इक साथ |
लांघण राखो टिड्डीयां,
बाँधण आवै नाथ ||२७३||

पश्चिम दिशा से टिड्डियों का दल-बादल सा उमड़ता हुआ आ रहा है | हे टिड्डियो ! तुम थोड़ी देर लंघन करलो | तुम्हे बांधने (अभिमंत्रित करने) हेतु नाथ (जोगी) आ रहा है |(नोट-राजस्थान में टिड्डी दल आने पर जोगी उसे अभिमंत्रित कर खेती को विनाश से बचा लेते थे )

हठीलो राजस्थान-44
Ratan singh shekhawat, Oct 31, 2010

गरजत बरजत सोच दिल,
लुक छिप दाव लड़ंत |
इण धरती पर आवतां,
इन्दर डरपै अन्त ||२६२||

यहाँ (राजस्थान में) बादल लुकते छिपते ही कभी कभार बरसते है | मानों यहाँ आते हुए इंद्र को भी डर लग रहा है |

कांसी लीलो रंग करयो,
नाड़ी तातो नीर |
बादल बासी रात रा,
धरलै कामण धीर ||२६३||

नमी में कांसी के बर्तनों पर नील प्रकट होने लगी है , तालाबों का जल भी गर्म है व रात के बादल सुबह तक विद्यमान है | हे पत्नी ! धैर्य रखो, ये वर्षा के लक्षण है | अत: वर्षा अवश्य आएगी |

नाग चढ्यो तरु ऊपरै,
सारस गण असमान |
दौड़े बादल पछिम दिस,
बहसी जल घमसान ||२६४||

सर्प पेड़ पर चढ़ जाते है व सारस भी बार-बार उड़ते है | पश्चिम दिशा की और से बादल दौड़े आ रहे है | अत:जबरदस्त बारिश होगी |

बादल आया बरसता ,
चहुँ दिस मोटो चाव |
पंखी नाचै, नर हंसे,
खेलण लागा दाव ||२६५||

प्रचुर जलवृष्टि करते बादलों को आया देखकर चतुर्दिक उल्लास छा गया है | पक्षी नाचने लगे है तथा मनुष्य हर्षित हो क्रीड़ा करने लगे है |

बरसै रिन्झिम बादली,
हरसै भूतल जीव |
सरसै जंगल झाड़ सह,
तरसै कामण पीव ||२६६||

जब बादली रिमझिम बरसाती है तो भूतल के सभी जीव हर्षित हो जाते है | जंगल के सभी पेड़ हरे-भरे हो जाते है तथा कमनियां प्रिय-मिलन के लिए व्याकुल हो उठती है |

पवन झकोलै बादली,
बीजल बिच मुसकाय |
रजनी पर दो चीर वा,
साँची बात बताय ||२६७||

पवन के झकझोरने से बादली के बीच बिजली मुस्कराने लगी है | एसा प्रतीत होता है मानो रात्री के परदे को चीरकर वह उसके मन की बात बता रही है |

हठीलो राजस्थान-43
Ratan singh shekhawat, Oct 29, 2010

हेलो सुण मो बादली,
मत कर इतो गुमान |
हिम-गिर बरस्यां नह सिरै,
बरसो राजस्थान ||२५६||

हे बादली ! हमारी पुकार सुनकर इतना गर्व न करो | हिमालय पर बरसने से काम नहीं चलेगा | राजस्थान में बरसो जहाँ देश के रक्षक पैदा होते है |

बुठो भोली बादली,
तूठो जग दातार |
रूठो मत इण बार तो,
सौगन सौ सौ बार ||२५७||

हे भोली बादली ! बरसो ! हे जग को जलदान देने वाली ! इस मरुधरा पर तुष्ट हो ! रूठो नहीं ! तुम्हे मेरी सौ-सौ बार (सौगंध)शपथ है |

बाज्यां घण दिन "जांजली",
मन आसा मुरझाय |
सावण बाज्यां 'सुरियो' ,
नई आस सरसाय ||२५८||

बहुत दिनों तक सूखी हवाएं चलने से मन की आशा मुरझा जाती है | फिर सावन में उत्तर-पश्चिम के कोण से हवा चलने पर ही नई आशा उत्पन्न होती है |

बहरुप्या ऐ बादला,
नाना रूप रचाय |
रुई केरा चुंखला ,
छिण आवै छिण जाय ||२५९||

ये बादल भी बहरूपिये जैसे है ,जो नाना प्रकार के रूप धारण करते रहते है | रुई के फैले की भांति ये क्षण में आ जाते है और क्षण में विलीन हो जाते है |

उंडी दिस उतराद में ,
बीजलियाँ चमकाय |
सांतर साजो सायबा ,
रोही बास बसाय ||२६०||

उत्तर दिशा से दूर पार बिजलियाँ चमकती देखकर प्रिय अपने प्रियतम से कहती है -" हे साजन ! अब जंगल में बसने की तैयारी करो |" (दुर्भिक्ष का योग दिखाई दे रहा है)

मग जोवै नित मोरिया,
हिवडै घणो हुलास |
बरसो किम ना बादली,
सावण आयो मास ||२६१||

हे बादली ! हृदय में उल्लास भरे हुए मोर प्रतिदिन तुम्हारी बाट-जोह रहे है | श्रावण का महिना आ गया है ,तुम अब भी बरसती क्यों नहीं ?|

हठीलो राजस्थान-42
Ratan singh shekhawat, Oct 28, 2010

राहू डसियां नह छिपै,
छिपै न बादल ओट |
झीणी रज पड़दै छिपै ,
दिनकर करमां खोट ||२५०||

राहू के ग्रसने पर भी जो पूरी तरह नहीं छिपता और न ही बादलों की ओट में छिपता है | वही सूर्य झिनी गर्द के आवरण में छिप जाता है | इसे सूर्य के कर्मों का दोष ही कहा जा सकता है |

रजकण चढ़ आकास में,
सूरज तेज नसाय |
धावो झेलै वीर गण,
सामां पैरा जाय ||२५१||

मिटटी के कण जब आकाश में चढ़कर धावा बोलते है तो सूर्य के तेज को भी नष्ट कर देते है , लेकिन शूरवीर अपने शत्रु के आक्रमण को सफलता पूर्वक झेल लेते है |

आंधी चढ़ आकास में ,
रजकण कित ले जाय |
देवण खात पड़ोस धर ,
सूर उठै निपजाय ||२५२||

यह आंधी आकाश में चढ़कर धुल कणों को कहाँ ले जा रही है | शायद पडौसी प्रदेशों को, जहाँ की धरती शूरवीरों को उत्पन्न करने में कमजोर है,ताकि ये रजकण यहाँ की खाद का काम करें व वहां की धरती भी शूरवीर उत्पन्न करने में समर्थ हो |

बालै झालै दिवसड़ो,
संध्या घणी सुहाय |
आंधी ढोलण बींजणों,
बांदी सी झट आय ||२५३||

यहाँ दिन यधपि जलता रहता है और झुलसा देता है किन्तु संध्या बड़ी सुहानी होती है | आंधी ,दासी की भांति पंखा झलने के लिए झट चली आती है |

काली कांठल उमड़तां,
उतर दिसा आकास |
करसां उमडै कोड मन ,
तिरसां नूतन आस ||२५४||

उतर दिशा से काली घटा उमड़ती देख किसानों का मन हर्षित हो रहा है तथा प्यास बुझाने की नई आशा जाग उठी है |

जावै क्यों न बादली,
उण धरती , उण राह |
पलक बिछावै पांवडा,
घर घर थारी चाह ||२५५||

हे बादली ! उस धरती और उस राह पर तूं क्यों नहीं जाती , जहाँ लोग तुन्हारे लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते है तथा घर घर में तुम्हारी चाह होती है |

हठीलो राजस्थान-41
Ratan singh shekhawat, Oct 27, 2010

बीजल सी चंचल लुवां,
नागण सी खूंखार |
पाणी सूँ पतली घणी,
पैनी धार कटार ||२४४||

राजस्थान में चलने वाली गर्म हवाएं बिजली सी चंचल है ,नागिन सी भयावह है , पानी से भी पतली है तथा कटार की धार सी तीक्षण है ||

बालै , चूंवै अंग सूँ ,
नह दीसै नैणांह |
भूतण सी भटकै दिवस,
लू डरपै रैणाह ||२४५||

गर्म हवाएं आग सी जलाती है तथा पसीने के रूप में अंग प्रत्यंग से चूती है ये आँखों से दिखाई नहीं देती एवं दिन भर भूतनी सी इधर-उधर भटकती फिरती है | रात पड़ने पर ये डरकर दुबक जाती है (मरुस्थल में रात में ठण्ड पड़ती है) |

जाल्या पीलू जीमणा,
लुवां तापणों गात |
नर रहसी नी रोग नित,
इण धरती परताप ||२४६||

जाल तथा पीलू वृक्ष के फलों को खाना तथा गरम हवाओं से अपने शरीर को तपाना -इन दोनों के फलस्वरूप यहाँ के लोग सदैव निरोग रहते है | यह इस धरती का ही प्रताप है |

लुवां ! भाजो किम भला,
भाज्यां धर लाजन्त |
आई बरसा सोक आ,
लिपटी हिवडे कन्त ||२४७||

हे गरम हवाओं ! भागो मत , भागने से यह धरती लज्जित होती है | लो ! तुम्हारी यह सोतन वर्षा आ गई है व् पति (इस प्रदेश) के हृदय से लग गई है |

काला पीला रेत कण,
बायरिये चढ़ धाय |
सूरां रा संदेसडा,
परदेसां पहुंचाय ||२४८||

काले पीले रेत के कण हवा के साथ आकाश में चढ़ इधर उधर दौड़ रहे है | एसा लगता है मानों यह रजकण शूरवीरों के संदेशों को परदेश में इनकी प्रियतमाओं के पास लेकर जा रहे हों |

झीणी रज आभै झुकी,
दिनकर दीसै दोट |
जाणे कांसो वाटको,
झांकै धूमर ओट ||२४९||

आकाश में गर्द छा गई है ,जिससे सूर्य धुंधला दिखाई देता है | सूर्य एसा लगता है ,जैसे धुंए के बीच कांसे का कटोरा हो |

हठीलो राजस्थान-40
Ratan singh shekhawat, Oct 26, 2010

तनां तपावै ताव सूं,
मनां घणी खूंखार |
त्यागण तणी पुकार ना,
नागण तणी फुंकार ||२३८||

ग्रीष्म ऋतू प्रचंड ताप से तन को तपा रही है यह स्वभाव से ही खूंखार है जिसके कारण उष्णता अधिक है | अब गर्मी के कारण वस्त्रादि त्यागने की बात सुनाई नहीं पड़ती क्योंकि लू रूपी नागिन फुंकारे भर रही है |

रूप रुखी गुण सांतरी,
संध्या सीतल थाय |
बड़का बोलण भामज्युं,
इण धर लुवां सुहाय ||२३९||

रूप (स्पर्श) में रुखी होते हुए भी ये लूएँ (गर्म हवाएं) गुण में (वर्षा योग में सहायक होने के कारण) श्रेष्ठ है | ऐसी लुओं के बाद संध्या बड़ी शीतल व सुहवानी होती है | इसी प्रकार "बडबोली" स्त्री के समान ये लूएं भी अच्छी लगती है |

बलती लुआं बाजतां,
कितरो लाभ करंत |
जलधर बरसै जोर सूं ,
इला नाज उपजंत ||२४०||

मरू-भूमि में चलने वाली ये तप्त तेज हवाएं कितनी लाभकारी है | इन्ही की बदोलत बादल बरसते है और पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न होता है |

दल बल धावो बोलतां,
रोग भोग भागंत |
लुवां हितैसी इण धरा,
जोग जती जागन्त ||२४१||

अपने दल-बल सहित जब ये गर्म हवाएं धावा बोलती है तो सब प्रकार के रोग व भोग भाग जाते है | इस प्रकार ये गर्म हवाएं इस धरती का हित चाहने वाली है क्योंकि इसके प्रभाव से लोग जागते हुए रहकर योगी व संत बन जाते है |

उगलै धरती आग आ ,
लुवां लपटा लाय |
अम्ब चढे आकास में,
पवन हिंडोला पाय ||२४२||

लपटों की गरम हुई हवाओं से यह धरती आग उगलती है | इसके फलस्वरूप धरती का जल (वाष्प बनकर) पवन हिंडोले पर बैठकर आकाश में चढ़ जाता है |

वन फल, भूतल जीव ले,
टाल टाल कर जांच |
लुवां पकावै लाड सूं ,
मधरी मधरी आंच ||२४३||

ये गर्म हवाएं जंगल के फलों और पृथ्वी के जीवों को देखकर परखकर तथा छांट-छांट कर धीमी धीमी आंच में बड़े प्यार से पकाती है | अर्थात इन गर्म हवाओं से बन फल पाक जाते है तथा प्राणी प्राकृतिक आपदाओं को झेलने के अभ्यस्त हो जाते है |

हठीलो राजस्थान-39
Ratan singh shekhawat, Oct 26, 2010

गरम धरा, गरमी गजब,
गरम पवन परकास |
सूरां तणों सभाव ओ,
इला तणों उछवास ||२३२||

यहाँ (राजस्थान)की धरती गर्म है,यहाँ गजब ढाने वाली गर्मी पड़ती है | हवाएं भी गर्म चलती है | उपरोक्त गर्मी यहाँ बसने वाले शूरवीरों के उग्र स्वभाव का प्रभाव है अथवा यहाँ की धरती द्वारा छोड़ी गए उच्छवासों के कारण है |

बादल डरपै बरसतां,
बीजल डरै खिवंत |
रगतां प्यासी आ धरा,
पांणी कम पिवन्त ||२३३||

बादल यहाँ पर जल बरसाते हुए डरता है तथा बिजली यहाँ चमकते हुए भय खाती है ,क्योंकि उसे संकोच है कि यहाँ धरती जिसकी प्यास शूरवीरों ने अपने रक्त से बुझाई है वह जल कैसे पीयेगी |

खग झल डरती नीसरी,
रूप बदल जल धार |
नरां ,तुरंगा , नारियां ,
निपजै पाणी दार ||२३४||

उपरोक्त दोहे के सन्दर्भ में कहा गया है कि यहाँ शूरवीरों की तलवार की चमक से डरते हुए यहाँ पर वर्षा नहीं होती लेकिन जल इस प्रदेश को छोड़ना भी नहीं चाहता ,अत: वह पराक्रम का रूप धारण करके यहाँ के मनुष्यों,नारियों व घोड़ो में निवास करता है |

जल धर रूठा नित रहै.
धर-जल उण्डी धार |
नारी न्हावै अगन में,
नर न्हावै खगधार ||२३५||

बादल यहाँ सदैव रूठे रहते है और धरती में जल भी बहुत गहरा है | फलत: यहाँ की नारियां तो अग्नि में स्नान (जौहर)करती है और पुरुष खड्ग धार में (शाका करके)|

अंतर सुलगै आग सूं,
अजै न पूरी आस |
अधूरा अरमान री,
लूवाँ नित उछवास ||२३६||

यहाँ के लोगों के हृदय में जब तक उद्देश्य की सिद्धि नहीं हो जाती पीड़ा की आग सुलगती रहती है | जब तक अरमान पूरे नहीं हो होते उच्छ्वास उठते रहते है जिसके परिणाम स्वरूप ही इस धरती पर हवा गर्म होकर बहती है |

आज अमुजो आकरो ,
नंगो बदन बणाय |
लुवां रुखाली लाजरी,
फिर गाबा पहराय ||२३७||

आज दम घोटू गर्मी के कारण सबने शरीर के कपडे उतार दी व इस निर्लज्जता को देखकर लज्जा की रक्षा हेतु गर्म हवाएं बहने लगी जिसके परिणाम स्वरूप लोगों को स्वत: ही पुन: वस्त्र पहनने पड़े |

हठीलो राजस्थान-38
Ratan singh shekhawat, Oct 25, 2010

उलझी टापां आंतड़यां,
भालां बिन्धयो गात |
भाकर रो भोम्यों करै,
डाढ़ा घोडां घात ||२२७||

घोड़े पर सवार शिकारी जंगल में सूअर पर प्रहार करता है -भाले से सूअर का शरीर बिंध गया है | घायल सूअर पर शिकारी के घोड़े के पैर जाकर गिरने से उसकी आंतडियां प्रभावित हुई है पर फिर भी पहाड़ का भोमिया सूअर निरुत्साहित नहीं हुआ व् अपने मुख से घोड़े के शरीर को काट कर आघात करता है |

मगरो छोडूं हूँ नहीं ,
भुंडण मत बिलमाय |
सेलां टकरां झेलसूं,
भाग्यां बंस लजाय ||२२८||

हे भुंडण (सुअरी) मुझे फुसलाने की कोशिश मत कर मैं इस पहाड़ी क्षेत्र को हरगिज नहीं छोडूंगा | मैं यहीं रहकर शिकारियों के सेलों की टक्कर झेलूँगा क्योंकि भागने से मेरा वंश लज्जित होता है |

चीतल काला छींकला,
गरण गरण गरणाय |
जान, सिकारी लुट लै,
नैणा नार चुराय ||२२९||

काले धब्बों वाला चीतल अपनी ही मस्ती में मस्त रहता है | शिकारी अकारण ही उसके प्राण-हरण कर लेता है किन्तु उसकी सुन्दर आँखों को तो नारी ने पहले ही चुरा लिया है |

सुरबाला पूछै सदा ,
अचरज करै सुरेस |
पसु पंखी,किम मानवी,
इण धर रूप विसेस ||२३०||

राजस्थान की इस धरती के पशु पक्षी व मानव इतने सुन्दर है कि देवांगनाएँ भी आश्चर्य चकित हो इंद्र से पूछती है कि इन्हें ऐसा रूप कहाँ से मिला ? |

संत तपस्या,सती झलां,
सूरा तेज हमेस |
तीनों तप भेला जठै,
गरमी क्यूं न बिसेस ||२३१||

संतो की तपस्या,सतियों के जौहर की ज्वाला तथा शूरवीरों का तेज यहाँ हमेशा बना रहा है | ये तीनों तप जहाँ इक्कठा हो ,वहां भला विशेष गर्मी क्यों न हों |(यही कारण है कि राजस्थान में गर्मी अधिक पड़ती है)|

हठीलो राजस्थान-37
Ratan singh shekhawat, Oct 23, 2010

ओडे चूँखै आंगली,
खेलै बालो खेल |
बिणजारी हाँकै बलद,
माथै ओडो मेल ||२२०||

बालक टोकरे में अपनी अंगुली चूसता हुआ खेल रहा है व उसकी माता (बिणजारी) टोकरे को सिर पर लिए हुए अपने बैलों हांकती हुई चली जा रही है |

देखो जोड़ी हेत री,
हित हन्दो बरताव |
इक मरतां बीजो मरै,
सारस रोज सभाव ||२२१||

परस्पर प्रेम में बंधी और नेह को निभानी यह सारस की जोड़ी कैसी अनूठी है कि जो एक के मरने पर दूसरा भी अपने प्राण त्याग देता है |


जाणी मोर न जगत में,
वाणी , रूप अनूप |
आई धरती ऊपरै,
सुन्दरता धर रूप ||२२२||

मोर ने कभी यह नहीं जाना कि उसकी वाणी और रूप संसार में दोनों ही अनुपम है | एसा लगता है ,जैसे सुन्दरता सदेह पृथ्वी पर अवतरित हुई है |

मालाणी घोडा भला,
पागल जैसाणेह |
मदवा नित बीकाण,
नारा नागाणेह ||२२३||

मालाणी प्रदेश के घोड़े श्रेष्ठ होते है तथा जैसलमेर के ऊंट | बीकानेर की गाय तथा नागौर के बैल श्रेष्ठ होते है |

बिन पाणी बाढ़े धरा,
पाणी धर तेलोह |
पाणी हिलै न पेटरो,
पाणी रो रेलोह ||२२४||

थली(मरुस्थल) का ऊंट रेगिस्तानी भूमि पर बिना पानी के ही जल के प्रवाह की तरह चलता हुआ धरती को पार करता रहता है व उसकी गति इतनी सुस्थिर होती है कि सवार के पेट का पानी भी नहीं हिलता |


डक डक नालियां बाजतां,
चालै मधरी चाल |
हवा न पूगै भगतां,
ताव पड़न्तां ताल ||२२५||

पैरों की हड्डियाँ के जोड़ों से डक-डक की आवाज करते हुए थली का ऊंट मंद गति से चलना पसंद करता है ,किन्तु समय की मांग का दबाव पड़ने पर इतनी तेज गति से दौड़ता है कि हवा भी उसे नहीं पहुँच सकती ||

हानै चमकै गोरबन्द,
पग नेवर झणकार |
पाछै झुमै कामिणी,
ओटी राग मलार ||२२६||
ऊंट के अगले भाग पर गोरबंद व पैरों में नेवर की झंकार हो रही है | ऊंट पर अगले होने में सवार बैठा मल्हार गा रहा है व पिछले हाने में बैठी उसकी पत्नी मस्ती से झूम रही है |

हठीलो राजस्थान-36
Ratan singh shekhawat, Oct 22, 2010
घुमै साथै रेवडां,
धारयां जोगी भेस |
गंगा जमुना एक पग,
बीजो मालब देस ||२१४||
राजस्थान के भेड़ बकरियों चराने वाले अपने रेवड़ों के साथ अकाल के समय कभी मालव प्रदेश में कभी गंगा यमुना के किनारे अपने पशुओं को चराने के लिए फिरते रहते है , क्या वे उन संतों के समान नहीं है जो कि गंगा यमुना के किनारे या मालव प्रदेश में नर्वदा के तट पर रहना पसंद करते है |

अन्न न देखै आँख सूँ,
सांड्या रो ही बास |
रेबारी पय-पान नित,
पलकै लोही मांस ||२१५||
अन्न जिन्हें आँखों से ही देखने को सुलभ नहीं है क्योंकि वे जंगल में ही निवास करते है | ऐसे रेबारी (ऊंट-पालक) ऊंटनियों का दूध पीकर ही रहते है जो इतना पोषक होता है कि उनकी (रेबारियों की) मांसपेसियां रक्त-वर्ण सी चमकीली होती है जिससे एसा प्रतीत होता है मानों खून मांस-पेशियों के ऊपर चमक रहा हो |

अबै नहीं हुक्का रह्या ,
रिया न चमड़ पोस |
नारेल्यां रहिया निपट,
चिलमां बीडी तोस ||२१६||

अब न तो हुक्का ही रहा है और न ही चमड़ पोस (चमड़े का हुक्का) व नारियल के हुक्के भी नहीं रहे | अब तो चिलम और बीडी से ही संतोष करना पड़ता है |

मुकलावै लाई घरां ,
बीत्या बरस पचास |
चरखो कातै आज दिन,
पीढ़े बैठी सास ||२१७||
पचास वर्ष पूर्व मुकलावे (गौने)के समय अपने साथ चरखा लाई थी | उसी चरखे से आज दिन तक सास पीढ़े पर बैठी सूत कात रही है |

तडकाऊ घट्टी फिरै,
गावै हरजस आप |
पीसै कामण नाज नित,
पीसै नित निज पाप ||२१८||
भोर में अपने हाथ से घट्टी (चक्की)फेरती हुई ग्राम्य-ललना हरजस (भजन)गाती है | यों अनाज पीसने के साथ मानों वह अपने पापो को भी पीस देती है |(अर्थात आत्म कल्याण कर लेती है)

दिवराणी पीसै घटी,
जेठाणी बीलोय |
नणद दुहारी नित करै,
देवर सींचै तोय ||२१९||
देवरानी चक्की पीसती है और जेठानी दही बीलो रही है | ननद दूध दुहती है तथा देवर पाणत (फसल में पानी देना) करता है | (कृषक परिवार का जिवंत चित्रण)|
हठीलो राजस्थान-35
Ratan singh shekhawat, Oct 21, 2010

अमलां हेलो आवियौ,
कांधे बाल लियांह |
केरो केरो झाँकतो,
ढ़ेरी हाथ लियांह ||२०८||

जब अमल लेने के लिए आवाज हुई तो अमलदार (अफीमची) जिसके कन्धों तक बाल थे,अमल की ढ़ेरी हाथ में लिए टेढ़ा-टेढ़ा देखता हुआ पहुंचा |

लालां सेडो झर झरै,
अखियाँ गीड अमाप |
जीतोड़ा भोगै नरक,
अमली माणस आप ||२०९||

जिसके मुंह से लार टपकती रहती है,नाक से सेडा(गन्दा पानी) बहता रहता है और आँखों में अपार गीड भरे रहते है | एसा अमल का नशा करने वाला मनुष्य इस संसार में जिन्दा रहकर नरक ही भोग रहा है |

मीठा माथै मन रमै,
बेगो बावड़ीयोह |
बंदाणी जूवां चुगै,
तपतां ताबड़ीयोह ||२१०||

प्रतिदिन अमल खाने वाला (बंदाणी) धूप में बैठा अपने कपड़ों से जुएँ निकाल रहा है | नशा करने का समय नजदीक आता जा था व पास में अफीम नहीं था | इसलिए किसी को अमल लाने के लिए भेजता है व निर्देश देता है कि मुंह में मिठास आने लगा है (अर्थात नशा पूरी तरह उतरने वाला है)अत: तू अफीम लेकर के जल्दी आना |

कर लटकायाँ उरणियो,
कांधे दीवड डाल |
दलपत आगै हालियो,
एवड रो एवाल ||१२१||

हाथ में उरणिया (भेड़ का बच्चा) लटकाए हुए और काँधे पर दीवडी (चर्म से बना जल पात्र) डाले हुए रेवड़ के आगे-आगे गडरिया चल रहा है |

गल टोकर टण टण बजै,
सांपै रांभ सजीव |
अलगोजां री तान बिच,
उछरी छांग अजीब ||२१२||

पशुओं के गले में टोकरे टण-टण करते हुए बज रहे है | पशुओं के रंभाने की आवाजें गूंज रही है | अलगोजों की तान के बीच पशुओं का समूह अजीब चाल से चला आ रहा है |

बाजै घंटी देहरां,
गल ढ़ोरां गरलाय |
भव-सागर तैरावणी,
बेतरणी तैराय ||२१३||

मंदिरों में बजने वाली घंटी की आवाज जिस प्रकार वैतरणी नदी को पार करा देती है उसी प्रकार पशुओं के गले से बंधी घंटी की आवाज संसार-सागर से पार उतार देती है |(पशुपालन से अर्थ व्यवस्था व भगवान् के भजन से परलोक गमन की बाधाएं दूर होती है )

हठीलो राजस्थान-34
Ratan singh shekhawat, Oct 19, 2010

धर गोरी, गोरी खड़ो,
गोरी गाय चराय |
गोरी लाई चूरमो ,
गोरी रूप लजाय ||२०३||

रेगिस्तान की धवल भूमि पर गोर वर्ण का ग्वाल सफ़ेद गाय को चरा रहा | दोपहर होने पर उसकी सुन्दर पत्नी भोजन के लिए चूरमा लेकर आती है व ग्वाल के रूप को देखकर शरमा जाती है |

टाबर दीधो रोवतो,
सज दीधो सिणगार |
डाबर भरवा जल गई,
डाबर नैणी नार ||२०४||

उस श्रंगार सज्जित युवती ने अपने रोते हुए शिशु को परिवार की अन्य महिलाओं को सौंप दिया तथा वह डाबर नैणी (सुनयना) डाबर (छोटे जलाशय) में जल भरने चली गई |

रंग सुरंगी ओढ़नी ,
हिवडै मोत्यां हार |
पणीयारयां पाणी भरै,
गावै राग मलार ||२०५||

रंग बिरंगी सुन्दर ओढ़नियां पहने तथा छाती पर मोतियों का हार धारण किए पनिहारिनें मल्हार राग गाती हुई पानी भरने जाती है |

हाली झूमै मगन व्है,
गोरी , डोरी भूल |
रट सु लगावै रेण दिन ,
अ-रटज नाम फिजूल ||२०६||

अरट की ध्वनी में मस्त होकर किसान (हाली) बैल को हांके जा रहा है व उसकी पत्नी जो खेत में पानी (पाणत करना)दे रही है मस्ती में डोली लगाना (नाके मोड़ना) भूल जाती है | ऐसी मस्ती प्रदान करने वाली जिसकी रट (ध्वनी) है उसका नाम व्यर्थ में ही अ-रट रखा गया है |

मेह अँधेरी रातड़ी,
उतरादी आ फांफ |
पग कादै कर खांक में,
पाणत आवै जाफ ||२०७||

मेह-अँधेरी रात में उतर दिशा से भयंकर लहर चल रही है | ऐसे में किसान की पत्नी ठण्ड के मारे हाथों को बगल में दबा कर क्यारियों में कीचड़ में खड़ी पाणत(फसल में पानी देना) करने के बाद लौटकर आ रही है |

1 comment:

  1. चोरी की पोस्ट कॉपी पेस्ट फ्रॉम ज्ञान दर्पण राजपूत वर्ल्ड !!

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