Saturday 7 September 2013

एकलिंग जी का प्रसिद्ध मंदिर

एकलिंग जी का प्रसिद्ध मंदिर

उदयपुर से १३ मील उत्तर में एकलिंग जी का प्रसिद्ध मंदिर है जो पहाड़ियों के बीच में बना हुआ है। इस गाँव का नाम कैलाशपुरी है। लोग इसे एकलिंगेश्वर की पुरी के रुप में भी जानते हैं। एकलिंग जी की मूर्ति चौमुखी है जिसकी प्रतिष्ठा महाराणा रायमल ने की थी। एकलिंग जी महाराणा के इष्टदेव माने जाते रहे हैं। लोग मेवाड़ राज्य के मालिक के रुप में उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते थे और महाराणा उनके दीवान कहलाते थे, इसी वजह से महाराणा को राजपूताने में दीवाणजी के रुप में भी पुकारा जाता था।
एकलिंग जी का सुविशाल मंदिर एक ऊँचे कोट से घिरा हुआ है। इसके निर्माण कार्य के बारे में तो ऐसा कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है लेकिन एक जनश्रुति के अनुसार सर्वप्रथम इसे राजा बापा (बापा रावल) ने बनवाया था। फिर मुसलमानों के आक्रमण से टूट जाने के कारण महाराणा मोकल ने उसका जीर्णोद्धार किया तथा एक कोट का निर्माण करवाया। तदनन्तर महाराणा रायमल ने नये सिरे से वर्तमान मंदिर का निर्माण किया। मंदिर के दक्षिणी द्वार के सामने एक तारव में महाराणा रायमल की १०० श्लोकों वाली एक प्रशस्ति लगी हुई है जो मेवाड़ के इतिहास तथा मंदिर के सम्बन्ध में संक्षिप्त वृत्तांत प्रस्तुत करती है। इस मंदिर में पूजन प्रक्रिया एक विशेष रुप से तैयार पद्धति के अनुसार होती है। उक्त पद्धति के अनुसार उत्तर के मुख को विष्णु का सूचक मानकर विष्णु के भाव से उसका पूजन किया जाता है।
इस मंदिर के अहाते में कई और भी छोटे बड़े मंदिर बने हुए हैं, जिनमें से एक महाराणा कुम्भा (कुभकर्ण) का बनवाया हुआ विष्णु का मंदिर है। लोग इसे मीराबाई का मंदिर के रुप में भी जानते हैं। एकलिंग जी के मंदिर से दक्षिण में कुछ ऊँचाई पर यहाँ के मठाधिपति ने सन् ९७१ (विक्रम संवत् १०२८) में लकुलीश का मंदिर बनवाया था। इस मंदिर के कुछ नीचे विंघ्यवासिनी देवी का मंदिर है।
बापा का गुरुनाथ हारीतराशि पहले एकलिंग जी मंदिर के महंत थे और पूजा का कार्य शिष्य-परंपरा के अन्तर्गत चलता रहा। इन नाथों का पुराना मठ अभी भी एकलिंग जी के मंदिर के पश्चिम की तरफ देखा जा सकता है। बाद में नाथों का आचरण गिड़ता गया। वे स्रियाँ भी रखने लगे। तभी से उन्हें अलग कर मठाधिपति के रुप में एक सन्यासी को नियत किया गया तभी से यहाँ के मठाधीश सन्यासी ही होते रहे हैं। ये सन्यासी गुसाईंजी (गोस्वामी जी) कहलाते थे। गुसांईजी की अध्यक्षता में तीन-चार ब्रम्हचारी रहते थे जो वहाँ का पूजन कार्य सम्पादित करते थे। पूजन की सामग्री आदि पहुचाने वाले परिचायके टहलुए कहे जाते हैं।
मेवाड़ के राजाओं की पुरानी राजधानी नागदा
एकलिंग जी के मंदिर से थोड़े ही अन्तर पर मेवाड़ के राजाओं की पुरानी राजधानी नागदा नगर है जिसको संस्कृत शिलालेखों में नागऋद के नाम से उल्लेख किया गया था। पहले यह बहुत बड़ा और समृद्धशाली नगर था परन्तु अब उजाड़ पड़ा हुआ है।
प्राचीन काल में यहाँ अनेक शिव, विष्णु तथा जैन मंदिर बने हुए थे जिसमें कई अभी भी विद्यमान हैं। जब दिल्ली के सुल्तान शमसुद्दीन अल्तुतमिश ने अपनी मेवाड़ की चढ़ाई में इस नगर को नष्ट कर दिया, तभी से इसकी अवनति होती गई। महाराणा मोकल ने इसके निकट अपने भाई बाघसिंह के नाम से बाघेला तालाब बनवाया जिससे इस नगर का भी कुछ अंश जल में डूब गया।
इस समय, जो मंदिर यहाँ विद्यमान है, उसमें से दो संगमरमर के बने हुए हैं। इन्हें सास बहु का मंदिर कहा जाता है। सास का मंदिर जिसका निर्माण लगभग विक्रम संवत् ११ वीं शताब्दी में हुआ था, में बहुत ही सुंदर नक्काशी का कार्य होने का प्रमाण है। एक विशाल जैन-मंदिर भी टूटी-फेटी दशा में है, जिसको खुंमाण रावल का देवरा कहते हैं। इसमें भी नक्काशी का अच्छा काम है। दूसरा जैन-मंदिर अदबद जी का मंदिर कहलाता है। इसके भीतर ९ फुट ऊँची शान्तिनाथ जी की बैठी हुई अवस्था में मूर्ति है। इस मूर्ति के लेख से ज्ञात होता है कि महाराणा कुंभकर्ण (कुंभा) के शासनकाल, सन् १४३७ (विक्रम संवत् १४९४) के दौरान ओसवाल सारंग ने यह मूर्ति बनवाई थी। इस अद्भुत मूर्ति के कारण ही इस मंदिर का नामकरण अदबदजी (अद्भुत जी) के रुप में हुआ।
नोटः लकुलीश या लकुटीश शिव के १८ अवतारों में से एक माना जाता है। प्राचीन काल के विभिन्न पाशुपत (शैव) सम्प्रदायों में यह सम्प्रदाय बहुत ही प्रसिद्ध था। उन्हें ऊघ्र्वरता (जिसका वीर्य कभी स्खलित न हुआ हो) माना जाता है जिसका चिन्ह ऊघ्र्वलिंग के रुप में है।

नाथ प्रशस्ति- एकलिंगजी ९७१ ई.
यह एकलिंगजी के मन्दिर से कुछ ऊंचे स्थान पर लकुलिश के मन्दिर में लगा हुआ शिलालेख[1] वि.सं. १०२८ (९७१ ई.) का है जिसे नाथ प्रशस्ति भी कहते हैं. भाषा संस्कृत पद्यों में देवनागरी लिपि है. यह मेवाड़ के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास के लिये बड़े काम की है. तीसरे और चोथे श्लोक में नागदा नगर का वर्णन है. पांचवें से आठवें श्लोकोम में यहां के राजाओं का वर्णन है जो बापा, गुहिल तथा नरवाहन हैं. आगे चलकर स्त्री के आभूषणों का वर्णन है. १३वें से १७वें श्लोक में ऐसे योगियों का वर्णन है जो भस्म लगाते हैं, बल्कल वस्त्र तथा जटाजूट धारण करते हैं. पाशुपत योग साधना करने वाले कुशिक योगियों तथा सम्प्रदाय के अन्य साधुओं का भी हमें परिचय मिलता है जो एकलिंगजी की पूजा करने वाले तथा उक्त मन्दिर के निर्माता कहे गये हैं. १७वें श्लोक में स्याद्वाद (जैन) तथा सौगत (बौद्ध) विचारकों को वादविवाद में परास्त करने वाले वेदांग मुनि की चर्चा है. इस प्रशस्ति का रचयिता भी इन्हीं वेदांग मुनि के शिष्य आम्र कवि थे. इसमें अन्य व्यक्तियों के नाम भी हैं जो मन्दिर के निर्माणक थे या उससे सम्बन्धित थे. यथा श्रीमार्तण्ड, लैलुक, श्री सधोराशि, श्री विनिश्चित राशि आदि.
Eklingaji Temple Inscription of 1488 AD

एकलिंगजी के मन्दिर की दक्षिणद्वार प्रशस्ति १४८८ ई.
यह प्रशस्ति एकलिंगजी के मन्दिर की दक्षिणद्वार के ताक में उस समय लगाई गई थी, जबकि महाराणा रायमल ने उस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था. उक्त प्रशस्ति[2] क समय वि.सं. १५४५ चैत्र शुक्ला १० गुरुवार है. (तदानुसार २३ मार्च १४८८ ई.) भाषा संस्कत तथा लिपि नागरी है. इसमें कुल १०१ श्लोक हैं. प्ररम्भ में गणेश, शिव, रुद्र, पशुपति, हर तथा पार्वती की स्तुति की है. बाद में मेदपाट और चित्रकूट की विशेषताओं का वर्णन दिया है. आगे चलकर नागदे के वर्णन के साथ लेखक बापा को द्विज कहकर उसका हारीत द्वारा राज्य अधिकार प्राप्ति की ओर संकेत है. तत्पश्चात बापा का सन्यास लेने का वर्णन है. फ़िर हमीर के द्वारा सिंहलिपुर का, क्षेत्रसिंह द्वारा पन्वडपुर का, लक्ष्मनसिंह द्वारा चीरुवर (चीरवा) का, मोकल द्वारा बंधनवाल (बांधनवाड़ा) तथा रामागांव और कुम्भा द्वारा नगह्रद, कठडावन, मलकखेट, और भीमाण का, और रायमल द्वारा नौवांपुर का श्री एकलिन्गजी के पूजार्थ समर्पण करने का वर्णन है.
इस प्रशस्ति से मालूम होता है की महाराणा लाखा के पास धन-संचय बहुत हो गया था, जिससे इसने एक लाख सुवर्ण मुद्राएँ दान में दी, सुवर्णादी की तुलायें कीं, सूर्यग्रहण में झोटिंग भट्ट को पिप्पली (पीपली) गाँव और धनेश्वर भट्ट को पञ्च-देवला गाँव दिया. रायमल ने भी इसी प्रकार कई ब्राह्मणों और विद्वानों को दान से संतुष्ट किया और विधिक धार्मिक संस्थाओं को अनुदान देकर अपनी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया.
इस प्रशस्ति द्वारा हमें मेवाड़ के कुछ शासकों द्वारा सैनिक उपलब्धियों का भी पता लगता है. क्षेत्रसिंह ने मांडलगढ के प्राचीर को तोड़कर उसके भीतर से लड़ने वाले योद्धाओं को मारा, तथा युद्ध में हाड़ों के मंडल को नष्ट कर उनकी भुमि को अपने अधीन किया.
क्षेत्रसिंह ने अमीसारूपी बड़े सांप के गर्वरूपी विष को निर्मूल किया. इससे स्पष्ट होता है कि क्षेत्रसिंह ने मालवा के स्वामी अमीशाह को चित्तौड़ के पास हराया. यह भी वर्णित है कि क्षेत्रसिंह ने ऐल (ईडर) के गढ को जीतकर राजा रणमल्ल को कैद किया, उसका सारा खजाना छीन लिया और उसका राज्य उसके पुत्र को दिया. इसी तरह युवराज की हैसियत से लाखा ने रणक्षेत्र में जोगा दुर्गाधिप को परस्त कर उसके हाथी तथा घोड़े छीन लिये. इसी तरह उसने बहुत-सी सुवर्ण मुद्रायें देकर गया को यवन-कर से मुक्त किया. इस लेख में मोकल को बलवान पक्षवाले शत्रु और लाखॊं को नष्ट करने वाला, बड़े संग्रामों में विजय पाने वाला और दूतों के द्वारा दूर-दूर की खबरें जानने वाला तथा जहाजपुर के युद्ध में हाड़ों को परस्त करने की वाला बतलाया है. महाराणा कुंभा (1433–1468) के सम्बन्ध में बताया गया है कि उसने मालवा के शासक को कुचल दिया और सारंगपुर को नष्ट कर दिया. इस अवसर पर उसने कई स्त्रियों को अपने अंत:पुर में स्थान दिया. रायमल ने भी गयासुद्दीन को चित्तौड़ में परास्त किया और खेराबाद को नष्ट कर वहां से दण्ड इकट्ठा किया. उसने दाडिमपुर के युद्ध में क्षेम को पराजित किया. रायमल (1473–1509) ने रत्नखेट गांव महेश कवि को देकर उसका सम्मन किया तथा गुरु गोपाल भट्ट को प्रहाण और थूर के गांव भेंट किये. नरहरि, झोटिंग, अत्री, महेश्वर आदिका भी वर्णन किया है. वे उस समय के प्रसिद्ध विद्वान थे. थूर गांव के वर्णन में उपज का विवरण दिया है जिसके अनुसार उस समय चावल, दाल और गन्ना प्रमुख हैं.इस प्रशस्ति के सूत्रधार अर्जुन थे जिन्होने यह प्रशस्ति उत्कीर्ण की और एकलिंगजी के जीर्णोद्धर की देखरेख की थी.

एकलिंगजी का मन्दिर, उदयपुर
मेवाड़ महाराणाओं के इष्टदेव एकलिंगजी का लकुलीश मन्दिर उदयपुर शहर के निकट नाथद्वारा राजमार्ग पर कैलाशपुरी नामक गाँव में बना हुआ है। इसका निर्माण आठवीं शताब्दी में मेवाड़ के गुहिल
शासक बप्पा रावल ने करवाया था तथा इसे वर्तमान स्वरूप महाराणा रायमल ने दिया था। मन्दिर के मुख्य भाग में काले पत्थर से बनी एकलिंगजी की चतुर्मु खी प्रतिमा है। किसी भी साहसिक कार्य के लिए प्रस्थान करने से पूर्व मेवाड़ के शासक इस मन्दिर में आकर आशीर्वाद लेते थे। क्योंकि एकलिंग जी को मेवाड़ राजघराने का कुलदेवता माना जाता था, जबकि यहाँ का राजा स्वयं को इनका दीवान मानते थे। इस मन्दिर के अहाते में कुंभा द्वारा निर्मित विष्णु मंदिर भी है, जिसे लोग मीराबाई का मन्दिर कहते हैं। एकलिंगजी में शिवरात्रि को प्रतिवर्ष मेला भरता है।


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