Sunday 8 September 2013

मन्दिर शिल्प

राजस्थान का स्थापत्य - मन्दिर शिल्प

मन्दिर शिल्प
मन्दिर शिल्प की दृष्टि से राजस्थान अत्यन्त समृद्ध है तथा उत्तर भारत के मंदिर स्थापत्य के इतिहास में उसका विशिष्ट महत्त्व है। राजस्थान में जो मंदिर मिलते हैं, उनमें सामान्यतः एक अलंकृत
प्रवेशद्वार होता है, उसे तोरण द्वार कहते हैं। तोरण द्वार में प्रवेश करते ही उप मण्डप आता है। तत्पश्चात् विशाल आंगन आता है, जिसे सभा मण्डप कहते हैं। सभा मण्डप के आगे मूल मंदिर का प्रवेश द्वार आता है। मूल मन्दिर को गर्भगृह कहा जाता है, जिसमें मूल नायक की प्रतिमा होती है। गर्भगृह के ऊपर अलंकृत अथवा स्वर्णमण्डित शिखर होता है। गर्भगृह के चारों ओर गलियारा होता है, जिसे पद-प्रदक्षिणा पथ कहा जाता है। तेरहवीं सदी तक राजपूतों के बल एवं शौर्य की भावना मन्दिर स्थापत्य में भी प्रतिबिम्बित होती है। अब मन्दिर के चारों ओर ऊँची दीवारें, बड़े दरवाजें तथा बुर्ज बनाकर दुर्ग स्थापत्य का आभास करवाया गया। इस प्रकार के मन्दिरों में रणकपुर का जैन मन्दिर, एकलिंगजी का मन्दिर, नीलकण्ठ (कुंभलगढ़) मन्दिर प्रमुख हैं।
           राजथान में सातवीं शताब्दी से पूर्व जो मन्दिर बने, दुर्भाग्य से उनके अवशेष ही प्राप्त होते हैं। यहाँ मन्दिरों के विकास का काल सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य रहा। यह वह काल था, जब राजस्थान में अनेक मन्दिर बने। इस काल में ही मन्दिरों की क्षेत्रीय शैलियाँ विकसित हुई। इस काल में विशाल एवं परिपूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुआ। लगभग आठवीं शताब्दी से राजस्थान में जिस क्षेत्रीय शैली का विकास हुआ, गुर्जर-प्रतिहार अथवा महामारू कहा गया है। इस शैली के अन्तर्गत प्रारम्भिक निर्माण मण्डौर के प्रतिहारों, सांभर के चौहानों तथा चित्तौड़ के मौर्यों ने किया। इस प्रकार के मन्दिरों में केकीन्द (मेड़ता) का नीलकण्ठेश्वर मन्दिर, किराडू का सोमेश्वर मन्दिर प्रमुख है। इस क्रम को आगे बढ़ाने वालों में जालौर के गुर्जर प्रतिहार रहे और बाद में चौहानों, परमारों और गुहिलों ने मन्दिर शिल्प को समृद्ध बनाया। परन्तु इस युग के कुछ मन्दिर गुर्जर-प्रतिहार शैली की मूलधारा से अलग है, इनमें बाड़ौली का मन्दिर, नागदा में सास-बहू का मन्दिर और उदयपुर में जगत अम्बिका मन्दिर प्रमुख हैं। इसी युग का सिरोही जिले में वर्माण का ब्रह्माण्ड स्वामी मन्दिर अपनी भग्नावस्था के बावजूद राजस्थान के सुन्दर मन्दिरों में से एक है। यह मन्दिर एक अलंकृत मंच पर अवस्थित है। दक्षिण राजस्थान के इन मन्दिरों में क्रमबद्धता एवं एकसूत्रता का अभाव दिखाई देता है। इन मन्दिरों के शिल्प पर गुजरात का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। इन मन्दिरों में विभिन्न शैलीगत तत्त्वों एवं परस्पर विभिन्नताओं के दर्शन होते हैं।

 ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी के बीच निर्मित होने वाले राजस्थान के मन्दिरों को श्रेष्ठ समझा जाता है क्योंकि यह मन्दिर - शिल्प के उत्कर्ष का काल था। इस युग में राजस्थान में काफी संख्या में बड़े और
अलंकृत मन्दिर बने, जिन्हें सोलंकी या मारु गुर्जर शैली के अन्तर्गत रख जा सकता है। इस शैली के मन्दिरों में ओसियाँ का सच्चिया माता मन्दिर, चित्तौड़ दुर्ग में स्थित समिंधेश्वर मन्दिर आदि प्रमुख हैं। इस शैली के द्वार सजावटी है। खंभे अलंकृत, पतले, लम्बे और गोलाई लिये हुये है, गर्भगृह के रथ आगे बढ़े हुये है। ये मन्दिर ऊँची पीठिका पर बने हुये हैं।

 राजस्थान में जैन मतावम्बियों ने अनेक जैन मन्दिर बनवाये, जो वास्तुकला की दृष्टि से अभूतपूर्व हैं। इन मंदिरों में विशिष्ट तल विन्यास संयोजन और स्वरूप का विकास हुआ जो इस धर्म की पूजा-पद्धति और मान्यताओं के अनुरूप था। जैन मन्दिरों में सर्वाधिक प्रसिद्ध देलवाड़ा के मन्दिर है। इनके अतिरिक्त रणकपुर, ओसियाँ, जैसलमेर आदि स्थानों के जैन मन्दिर प्रसिद्ध है। साथ ही, पाली जिले में सेवाड़ी, घाणेराव, नाडौल-नारलाई, सिरोही जिले में वर्माण, झालावाड़ जिले में चाँदखेड़ी और झालरापाटन, बूँदी में केशोरायपाटन, करौली में श्रीमहावीर जी आदि स्थानों के जैन मन्दिर प्रमुख हैं।

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