राजस्थान का स्थापत्य - दुर्ग स्थापत्य
मानव की विकास यात्रा में कला का प्रवेश मनुष्य के मन में तब हुआ, जब उसकी प्राथमिक आवश्यकताएँ पूरी हो गईं। कला विहीन मनुष्य मशीन है। कला के संग संवेदनाएँ जुड़ी हुई हैं। कला मनुष्य में स्पन्दन का बीजारोपण करती है। कला मन को झंकृत करती है। सभ्यता के विकास के साथ संस्कृति समृद्ध होती चली गई। संस्कृति की अभिव्यक्ति मनुष्य ने विभिन्न रूपों में की। भवनों, महलों,मन्दिरों, बावड़ियों आदि का निर्माण मनुष्य की सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति समझी जानी चाहिये।मन्दिरों के निर्माण ने मूर्तियों को गढ़ने की आवश्यकता महसूस करायी। इससे मूर्तिशिल्प विज्ञान का विकास हुआ। वास्तुशिल्प विज्ञान के विकास का प्रारम्भ तो बहुत पहले ही हो चुका था।
भवन निर्माण एवं शिल्प की उत्कृष्टता के साक्ष्य राजस्थान में मानव की विकास यात्रा के साथ ही देखने को मिलते है। कालीबंगा, आहड़, गिलूण्ड, बैराठ, नोह, नगरी आदि राजस्थान के ऐसे पुरातात्विक स्थल हैं, जहाँ आवासों का निर्माण हुआ। स्थापत्य एवं रक्षा की दृष्टि से राजस्थान के ऐतिहासिक भवन, जिनका निर्माण पूर्व-मध्यकाल में हुआ,बेजोड़ थे। राजस्थान में विभिन्न स्थलों पर स्थित मध्यकालीन किले, मन्दिर, राजप्रासाद, बावड़ियाँ एवं अन्य भवन एक समन्वयात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हैं। राजपूत संस्कृति के अभ्युदय के कारण वीरता एवं रक्षा के प्रतीक किलों का निर्माण तेजी से हुआ। इसी के साथ, भक्ति, शक्ति एवं अध्यात्म की प्रभावना के कारण मन्दिरों की स्थापना में गति आयी। यहाँ यह जान लेना उपयुक्त होगा कि राजस्थान की भवन निर्माण कला में उपयोगिता एवं समन्वयात्मकता की भावना को केन्द्र बिन्दु में रखा गया है, साथ ही शिल्प सौष्ठव, अलंकरण एवं सुरक्षा की भावना का निर्माताओं ने ध्यान रखा है। समय और सम्पन्नता के साथ वास्तुकला में उत्कृष्टता, विशालता एवं सूक्ष्मता के तत्त्वों का समावेश होने लगा। स्थापत्य का वैविध्य राजस्थान की वास्तुकला की विशेषता है। यहाँ के शासकों ने सदैव ही कला को संरक्षण एवं संवर्धन प्रदान किया है। राजस्थान में जितनी भी ऐतिहासिक इमारतें एवं सांस्कृतिक वैभव के प्रतीक शेष बचे हैं, वे इस प्रदेश की स्थापत्य की समृद्ध विरासत को कहने में सक्षम है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को गौरवान्वित करने का श्रेय राजस्थान की वास्तुकला एवं मूर्तिशिल्प के साथ चित्रकला को भी जाता है। राजस्थान की चित्रशैलियाँ युगों के मानव श्रम का परिणाम है। वैसे हजारों वर्षों पूर्व राजस्थान के शैलाश्रयों में शैलचित्तों का रेखांकन राजस्थान में प्रारम्भिक चित्रण परम्परा को उद्घाटित करती है। भारतीय चित्रकला की सर्वोत्कृष्ट दाय अजन्ता शैली की समृद्ध परम्परा को वहन करने वाली राजस्थानी चित्रकला के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत अध्याय में राजस्थान के स्थापत्य, मूर्तिशिल्प एवं चित्रशैलियों का विवेचन किया जा रहा है ताकि राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा से आप अवगत हो सकें।
दुर्ग स्थापत्य
प्राचीन लेखकों ने दुर्ग को राज्य का अनिवार्य अंग माना है। राजस्थान में दुर्ग निर्माण की परम्परा पूर्व मध्यकाल से ही देखने को मिलती है। यहाँ शायद ही कोई जनपद हो, जहाँ कोई दुर्ग या गढ़ न हो। इन दुर्गों का अपना इतिहास है। इनके आधिपत्य को लेकर कई लड़ाइयाँ भी लड़ी गई। कई बार स्थानीय स्तर पर तो यदा-कदा विदेशी सत्ता द्वारा, इन पर अधिकार करने को लेकर दीर्घ काल तक संघर्ष भी चले। युद्ध कला में दक्ष सेना के लिए दुर्ग को जीवन रेखा माना गया है। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण देश में राजस्थान वह प्रदेश है, जहाँ पर महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के बाद सर्वाधिक गढ़ ओर दुर्ग बने हुए हैं। एक गणना के अनुसार राजस्थान में 250 से अधिक दुर्ग व गढ़ हैं। खास बात यह कि सभी किले और गढ़ अपने आप में अद्भुत और विलक्षण हैं। दुर्ग निर्माण में राजस्थान की स्थापत्य कला का उत्कर्ष देखा जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थो में किलों की जिन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख हुआ है, वे यहाँ के किलों में प्रायः देखने को मिलती हैं। सुदृढ़ प्राचीर, अभेद्य बुर्जें, किले के चारों तरफ़ गहरी खाई या परिखा, गुप्त प्रवेश द्वार तथा सुरंग, किले के भीतर सिलह रवाना (शस्त्रागार), जलाशय अथवा पानी के टांके, राजप्रासाद तथा सैनिकों के आवास गृह-यहाँ के प्रायः सभी किलों में विद्यमान है।
राजस्थान में दुर्गों का निर्माण दरअसल विभिन्न रूपों में हुआ है। कतिपय दुर्गों के प्रकार निम्न हैं-
1. धान्वन दुर्ग : ऐसा दुर्ग जिसके दूर-दूर तक मरु भूमि फैली हो, जैसे-जैसलमेर (स्थल दुर्ग) का किला।
2. जल दुर्ग : ऐसा दुर्ग जो जल राशि से घिरा हो, जैसे - गागरोन का किला।
3. वन दुर्ग : वह दुर्ग जो कांटेदार वृक्षों के समूह से घिरा हो, जैसे सिवाणा दुर्ग।
4. पारिख दुर्ग : वह दुर्ग जिसके चारों तरफ़ गहरी खाई हो, जैसे भरतपुर का लोहागढ़ दुर्ग।
5. गिरि दुर्ग : एकान्त में किसी ऊँची दुर्गम पहाड़ी पर स्थित दुर्ग, जैसे मेहरानगढ़, चित्तौड़गढ़, रणथम्भौर।
6. एरण दुर्ग : वह दुर्ग जो खाई, कांटो एवं पत्थरों के कारण दुर्गम हो, जैसे चित्तौड़ एवं जालौर दुर्ग।
उक्त दुर्गों के प्रकार के अतिरिक्त दुर्गों के अन्य प्रकार भी होते हैं। यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि कुछ दुर्ग ऐसे भी हैं, जिन्हें दो या अधिक दुर्गों के प्रकार में शामिल किया जा सकता है, जैसे
चित्तौड़ के दुर्ग को गिरि दुर्ग, पारिख दुर्ग एवं एरण दुर्ग की श्रेणी में भी विद्वान रखते हैं। वैसे दुर्गों के सभी प्रकारों में सैन्य दुर्गों को श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसे दुर्ग व्यूह रचना में चतुर वीरों की सेना के साथ
अभेद्य समझे जाते थे। चित्तौड़ दुर्ग सहित राजस्थान के कई दुर्गों को ‘सैन्य दुर्ग’ की श्रेणी में रखा जाता है।
आचार्य कौटिल्य, शुक्र आदि ने भी दुर्गों के महत्त्व एवं वास्तुशिल्प के बारे में संक्षेप में लिखा है। शासकों को यह निर्देश दिया गया है कि वे अधिकाधिक किलों पर अपना आधिपत्य स्थापित करें।
राजस्थान में किलों का स्थापत्य वास्तुशिल्पियों के मानदण्ड के अनुसार ही हुआ है। मध्यकाल में यहाँ अनेक किलों का निर्माण हुआ और दुर्ग स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया। किलों का निर्माण करते समय अब इस तथ्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा कि दुर्ग ऐसी पहाड़ियों पर बनाये जावें जो ऊँची पहाड़ियों के साथ चौड़ी हो तथा जहाँ खेती ओर सिंचाई के साधन हों। इसके अतिरिक्त जो ऐसी पहाड़ियों पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे, उन्हें फिर से नया रूप दिया गया।
मानव की विकास यात्रा में कला का प्रवेश मनुष्य के मन में तब हुआ, जब उसकी प्राथमिक आवश्यकताएँ पूरी हो गईं। कला विहीन मनुष्य मशीन है। कला के संग संवेदनाएँ जुड़ी हुई हैं। कला मनुष्य में स्पन्दन का बीजारोपण करती है। कला मन को झंकृत करती है। सभ्यता के विकास के साथ संस्कृति समृद्ध होती चली गई। संस्कृति की अभिव्यक्ति मनुष्य ने विभिन्न रूपों में की। भवनों, महलों,मन्दिरों, बावड़ियों आदि का निर्माण मनुष्य की सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति समझी जानी चाहिये।मन्दिरों के निर्माण ने मूर्तियों को गढ़ने की आवश्यकता महसूस करायी। इससे मूर्तिशिल्प विज्ञान का विकास हुआ। वास्तुशिल्प विज्ञान के विकास का प्रारम्भ तो बहुत पहले ही हो चुका था।
भवन निर्माण एवं शिल्प की उत्कृष्टता के साक्ष्य राजस्थान में मानव की विकास यात्रा के साथ ही देखने को मिलते है। कालीबंगा, आहड़, गिलूण्ड, बैराठ, नोह, नगरी आदि राजस्थान के ऐसे पुरातात्विक स्थल हैं, जहाँ आवासों का निर्माण हुआ। स्थापत्य एवं रक्षा की दृष्टि से राजस्थान के ऐतिहासिक भवन, जिनका निर्माण पूर्व-मध्यकाल में हुआ,बेजोड़ थे। राजस्थान में विभिन्न स्थलों पर स्थित मध्यकालीन किले, मन्दिर, राजप्रासाद, बावड़ियाँ एवं अन्य भवन एक समन्वयात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हैं। राजपूत संस्कृति के अभ्युदय के कारण वीरता एवं रक्षा के प्रतीक किलों का निर्माण तेजी से हुआ। इसी के साथ, भक्ति, शक्ति एवं अध्यात्म की प्रभावना के कारण मन्दिरों की स्थापना में गति आयी। यहाँ यह जान लेना उपयुक्त होगा कि राजस्थान की भवन निर्माण कला में उपयोगिता एवं समन्वयात्मकता की भावना को केन्द्र बिन्दु में रखा गया है, साथ ही शिल्प सौष्ठव, अलंकरण एवं सुरक्षा की भावना का निर्माताओं ने ध्यान रखा है। समय और सम्पन्नता के साथ वास्तुकला में उत्कृष्टता, विशालता एवं सूक्ष्मता के तत्त्वों का समावेश होने लगा। स्थापत्य का वैविध्य राजस्थान की वास्तुकला की विशेषता है। यहाँ के शासकों ने सदैव ही कला को संरक्षण एवं संवर्धन प्रदान किया है। राजस्थान में जितनी भी ऐतिहासिक इमारतें एवं सांस्कृतिक वैभव के प्रतीक शेष बचे हैं, वे इस प्रदेश की स्थापत्य की समृद्ध विरासत को कहने में सक्षम है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को गौरवान्वित करने का श्रेय राजस्थान की वास्तुकला एवं मूर्तिशिल्प के साथ चित्रकला को भी जाता है। राजस्थान की चित्रशैलियाँ युगों के मानव श्रम का परिणाम है। वैसे हजारों वर्षों पूर्व राजस्थान के शैलाश्रयों में शैलचित्तों का रेखांकन राजस्थान में प्रारम्भिक चित्रण परम्परा को उद्घाटित करती है। भारतीय चित्रकला की सर्वोत्कृष्ट दाय अजन्ता शैली की समृद्ध परम्परा को वहन करने वाली राजस्थानी चित्रकला के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत अध्याय में राजस्थान के स्थापत्य, मूर्तिशिल्प एवं चित्रशैलियों का विवेचन किया जा रहा है ताकि राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा से आप अवगत हो सकें।
दुर्ग स्थापत्य
प्राचीन लेखकों ने दुर्ग को राज्य का अनिवार्य अंग माना है। राजस्थान में दुर्ग निर्माण की परम्परा पूर्व मध्यकाल से ही देखने को मिलती है। यहाँ शायद ही कोई जनपद हो, जहाँ कोई दुर्ग या गढ़ न हो। इन दुर्गों का अपना इतिहास है। इनके आधिपत्य को लेकर कई लड़ाइयाँ भी लड़ी गई। कई बार स्थानीय स्तर पर तो यदा-कदा विदेशी सत्ता द्वारा, इन पर अधिकार करने को लेकर दीर्घ काल तक संघर्ष भी चले। युद्ध कला में दक्ष सेना के लिए दुर्ग को जीवन रेखा माना गया है। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण देश में राजस्थान वह प्रदेश है, जहाँ पर महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के बाद सर्वाधिक गढ़ ओर दुर्ग बने हुए हैं। एक गणना के अनुसार राजस्थान में 250 से अधिक दुर्ग व गढ़ हैं। खास बात यह कि सभी किले और गढ़ अपने आप में अद्भुत और विलक्षण हैं। दुर्ग निर्माण में राजस्थान की स्थापत्य कला का उत्कर्ष देखा जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थो में किलों की जिन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख हुआ है, वे यहाँ के किलों में प्रायः देखने को मिलती हैं। सुदृढ़ प्राचीर, अभेद्य बुर्जें, किले के चारों तरफ़ गहरी खाई या परिखा, गुप्त प्रवेश द्वार तथा सुरंग, किले के भीतर सिलह रवाना (शस्त्रागार), जलाशय अथवा पानी के टांके, राजप्रासाद तथा सैनिकों के आवास गृह-यहाँ के प्रायः सभी किलों में विद्यमान है।
राजस्थान में दुर्गों का निर्माण दरअसल विभिन्न रूपों में हुआ है। कतिपय दुर्गों के प्रकार निम्न हैं-
1. धान्वन दुर्ग : ऐसा दुर्ग जिसके दूर-दूर तक मरु भूमि फैली हो, जैसे-जैसलमेर (स्थल दुर्ग) का किला।
2. जल दुर्ग : ऐसा दुर्ग जो जल राशि से घिरा हो, जैसे - गागरोन का किला।
3. वन दुर्ग : वह दुर्ग जो कांटेदार वृक्षों के समूह से घिरा हो, जैसे सिवाणा दुर्ग।
4. पारिख दुर्ग : वह दुर्ग जिसके चारों तरफ़ गहरी खाई हो, जैसे भरतपुर का लोहागढ़ दुर्ग।
5. गिरि दुर्ग : एकान्त में किसी ऊँची दुर्गम पहाड़ी पर स्थित दुर्ग, जैसे मेहरानगढ़, चित्तौड़गढ़, रणथम्भौर।
6. एरण दुर्ग : वह दुर्ग जो खाई, कांटो एवं पत्थरों के कारण दुर्गम हो, जैसे चित्तौड़ एवं जालौर दुर्ग।
उक्त दुर्गों के प्रकार के अतिरिक्त दुर्गों के अन्य प्रकार भी होते हैं। यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि कुछ दुर्ग ऐसे भी हैं, जिन्हें दो या अधिक दुर्गों के प्रकार में शामिल किया जा सकता है, जैसे
चित्तौड़ के दुर्ग को गिरि दुर्ग, पारिख दुर्ग एवं एरण दुर्ग की श्रेणी में भी विद्वान रखते हैं। वैसे दुर्गों के सभी प्रकारों में सैन्य दुर्गों को श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसे दुर्ग व्यूह रचना में चतुर वीरों की सेना के साथ
अभेद्य समझे जाते थे। चित्तौड़ दुर्ग सहित राजस्थान के कई दुर्गों को ‘सैन्य दुर्ग’ की श्रेणी में रखा जाता है।
आचार्य कौटिल्य, शुक्र आदि ने भी दुर्गों के महत्त्व एवं वास्तुशिल्प के बारे में संक्षेप में लिखा है। शासकों को यह निर्देश दिया गया है कि वे अधिकाधिक किलों पर अपना आधिपत्य स्थापित करें।
राजस्थान में किलों का स्थापत्य वास्तुशिल्पियों के मानदण्ड के अनुसार ही हुआ है। मध्यकाल में यहाँ अनेक किलों का निर्माण हुआ और दुर्ग स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया। किलों का निर्माण करते समय अब इस तथ्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा कि दुर्ग ऐसी पहाड़ियों पर बनाये जावें जो ऊँची पहाड़ियों के साथ चौड़ी हो तथा जहाँ खेती ओर सिंचाई के साधन हों। इसके अतिरिक्त जो ऐसी पहाड़ियों पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे, उन्हें फिर से नया रूप दिया गया।
1.
गिरि दुर्ग
2.
जल दुर्ग
3.
पारिख दुर्ग
4.
धान्वन दुर्ग
5.
पारिध दुर्ग
6.
एरण दुर्ग
7.
सैन्य दुर्ग
8.
स्थल या मही दुर्ग
9.
सहाय दुर्ग
10.
वन या वक्ष दुर्ग
|
वह दुर्ग जो किसी उच्च पर्वत पर स्थित हो तथा
जिसके चारो तरफ पर्वत हो
जिसके चारो तरफ बहुत दूर तक फैली हुई जल राशि
हो
जिसके चारो तरफ गहरी खाई बनी हो
जो मरूस्थल में बना हो, जिसके चारो ओर रेत के टीले हो
वह जिसके चारो तरफ ईंट, पत्थर ओर मिट्टी से बनी बड़ी-बड़ी दीवार हो
जिसके मार्ग खाई, काँटों ओर पत्थरों से दुर्गम हो
जो चतुरंगिनी सेना से चारों ओर से सुरक्षित हो
समतल भूमि पर निर्मित
जिसमें शूर तथा सदा अनुकूल रहने वाले बांधव
लोग रहते हों
जो
|
राजस्थान के प्रमुख
किले
चितौड का किला
= चितौड़गढ़ = चित्रागंद मौर्य
जैसलमेर का किला
= जैसलमेर = जैसलदेव
कुम्भलगढ़ का किला
= उदयपुर = कुम्भा
आमेर का किला
= जयपुर = घोलाराय जी
तारागढ़ का किला
= अजमेर = अजयपाल
सिंघाना का किला
= जोधपुर = वीर नारायण
जालौर का किला
= जालौर = परमार वंश
नाहरगढ़ का किला
= जयपुर = कछवाहा वंश
डीग का किला
= भरतपुर = राजा सूरजमल
भटनेर का किला
= हनुमानगढ़ = भूप भाटी
बयाना का किला
= भरतपुर = विजयपाल
रणथंभौर का किला
= सवाई माधोपुर
मेहरानगढ़ का किला
= जोधपुर = राव जोधा
जूनागढ़ का किला
= बीकानेर = रायसिंह
अचलगढ़ का दुर्ग
= आबू = कुम्भा
अकबर का किला
= अजमेर = अकबर
सिवाना का दुर्ग
= सिवाना बाड़मेर = वीरनारायण पवार
लोहागढ़ का दुर्ग
= भरतपुर - सूरजमल जाट
तिमंगढ़ का किला
= भरतपुर - तीमन पाल
सोजत का दुर्ग
= पाली = राव मालदेव
अजय मेरु = अजमेर = अजयराज
माधो राजपुरा = जयपुर = माधो
सिंह
कोटा गढ़ = कोटा = जैत्र
सिंह
दौसा का दुर्ग
= दौसा = बडगूजर
राजगढ़ = राजगढ़ = प्रताप सिंह
मांडल गढ़ = चानणा गुर्जर
सोनार का किला
= जैसलमेर = जैसल भाटी
किलोण = बाड़मेर = राव भोमोजी
गागरोन = झालावाड़ = परमार राजपूत
नाहरगढ़ = जयपुर = जय सिंह
जयगढ़ = जयपुर = जय सिंह
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