Tuesday, 28 August 2012

धरती का सुहाग


धरती का सुहाग

"वसुधा वीरा री वधू ,वीर तिको ही बिन्द "
धरती वीरों की वधू होती है और वीर उसके पति |
" वीर भोग्या वसुंधरा " इस धरती को वीर ही भोगते है |
लेकिन इस धरती को भोगना और इसका स्वामी बने रहना इतना आसान भी नहीं है इस धरती के सुहाग की रक्षा के लिए,इसकी इज्जत आबरू के लिए बलिदान करने होते है तभी कोई वीर इसका स्वामी बने रह सकता है उसे इस धरती रूपी वधू के प्रति बहुत सारे कर्तव्य निभाने पड़ते है जो शायद आज हम भूल रहे है उन्ही कर्तव्यों की याद दिला रही है बाड़मेर के पूर्व सांसद स्व.श्री तन सिंह जी की यह रचना -
युगों से दृश्य बदलते गए पर एक दृश्य पर मेरी आँख ठिठक गयी | दृश्य पटल पर मैंने एक नारी को देखा | गौर वर्ण,सरोवर से सजल और बड़े बड़े नेत्र,हरी-हरी साड़ी पहने ऊपर नदियों के गोटे लगे हुए थे | सलमे सितारों की जगमागाहट से उसका रूप कहीं अधिक जगमगा रहा था | उसके सतोगुणीय सोंदर्य के सागर में आनंदातिरेक से उद्विग्न हो मेरा मन गहरे गोते लगा रहा था किन्तु मैंने देखा उसकी आँखों में नारायण की व्यथा समाई हुई थी | उसे एक दुष्ट पुरुष अपनी जांघ पर बिठाना चाहता था | वह उसकी हरी हरी सुन्दर साड़ी का पल्ला खींच रहा था और वह अर्धनग्न नारी किसी दुखिया की करुण पुकार-सी पछाड़ खाती हुई मुझसे अभय मांग रही थी | उसकी अस्त व्यस्त केश-राशि मेरे पुरुषार्थ को चुनोती दे रही थी | मैंने सोचा यह दृश्य तो द्रोपदी का है और वह दुष्ट पुरुष शायद दुर्योधन है | शायद मै द्वापर युग के चीरहरण का दृश्य देख रहा था , परन्तु जब मैंने आर्श्चय से मेरी खुद की तस्वीर को दृश्य पटल पर देखा तो संशय हुआ शायद वह कलियुग का ही कोई दृश्य है |
दृश्य पटल पर स्थितिप्रज्ञ की भांति मै खडा था और वह द्रोपदी अपना परिचय दे रही थी -" मै द्रोपदी नहीं धरती हूँ -तेरी स्त्री हूँ ! सतीत्व ही एक मात्र मेरा धन है जिसे यह दुष्ट पुरुष बरबस लुट रहा है ! मुझे बचाओ मेरे नाथ ! मुझे बचाओ !!
लेकिन मै दृश्य पटल पर चुप ही खडा था |
उसने बताया मै किसी एक की होकर नहीं रहना चाहती थी | मुझे अपनी बनाने के लिए कितने ही इतिहास रंगे गए पर तुम्हारे पूर्वजों ने मुझे बलपूर्वक अपनी बना लिया | मेरे लिए लम्बे लम्बे युद्ध चले , लाखों का संहार हुआ , इतना कि मै रक्तस्नाता हो गई | आखिर हार कर मैंने सोच ही लिया कि यह मुझे किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकता | तभी मैंने अपना कुल्टापन छोडा और वीर भोग्या बनी | पर मुझे एसा मालूम होता कि तेरे जीवित रहते मुझे कोई ले जा सकता है तो मै किसी एक के घर साध्वी बनकर रहने की छलना में कभी नहीं छली जाती | होनहार ने मेरा सारा गर्व खंडित कर दिया , तेरे जैसा नाजोगा पति देखने को मिला अन्यथा मै बहुत पहले ही किसी का पल्ला पकड़ लेती "|
लेकिन मै दृश्य पटल पर चुप ही खडा था |
उसने मुझे याद दिलाया - " मेरे लिए तेरे पूर्वजों ने क्या नहीं किया ? कौनसा पाप नहीं किया ? भाई-भाई आपस में मेरे लिए मर मिटे | पिता ने पुत्र को और पुत्र ने पिता को मारा , सिर्फ मेरे लिए | मेरे लिए एक युद्ध में तेरी बारह बारह पीढियां काम आई | मेरे लिए ही तेरी माँ बहनों ने जलती ज्वालाओं ने जलकर प्राण त्यागे , मेरे लिए ही तेरे पूर्वज केसरिया बाना पहन कर बिना सिर लड़ते रहे | मेरे लिए ही समस्त संसार में सर्वाधिक कीमत चुकाने वाले तेरे ही पूर्वज थे, इसीलिए जन्म जन्मान्तरों तक मै तुम्हारे चरणों की दासी बनी रही | जीने के लिए मरते रहे और मरने के लिए जीते रहे ,पर जिन्दा रहते मेरे किसी पति ने मेरा इस प्रकार परित्याग नहीं किया जिस प्रकार आज तू कर रहा है | जरा देख तो सही,तेरे जीते जी ये दुष्ट मुझे ले जा रहा है |"
लेकिन फिर भी मैंने कुछ नहीं किया | दृश्य पटल पर मौन खडा रहा | केवल इतना ही कहा -" देवी ! धन और धरती बंट कर रहेगी |"
उसने मुझे फटकारा -" मुर्ख पतिदेव ! कायर ! शिखंडी !" और भी न जाने कितनी गलियां उसने मुझे सुना दी | उसने मुझे ललकारा -" बहुत युग बाद तत्व ज्ञानी बना है ! आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध और महावीर ने तुझे समझाया था तब तू क्यों नहीं चुप रहा ? सैकडो ऋषि और मुनियों ने तुझे अहिंसा का उपदेश दिया था उस समय तुने अपनी तलवार को म्यान में क्यों नहीं डाला था ? कितने साहित्यकारों और कवियों ने तुझे काव्यमयी भाषा में समझाया ! उस समय तेरी अक्ल क्या घास चरणे गयी थी जो आज तत्वद्रष्टा का स्वांग बनाकर ज्ञान झाड़ रहा है ? मै तेरी नारी हूँ ,माँ हूँ ,पुत्री और भगिनी हूँ तेरी इज्जत और आबरू हूँ ,तेरे घर की शोभा और सुख हूँ |
तेरा तत्वज्ञान वेश्याओं के कोठे पर सुना ,क्योंकि सरे बाजार में उन्ही के सतीत्व का बंटवारा हुआ करता है | मै साध्वी हूँ ! पीढियों से तेरे कुल की कुलवधू हूँ
" निवीर्य ! यदि रूप के बाजार में ही बैठाना था तो दूल्हा बनकर तुम और तुम्हारे पूर्वजों ने मेरा पाणिग्रहण ही क्यों किया था ? और पाणिग्रहण ही किया था तो वही पाणी आज एक पर पुरुष पकड़ रहा है ! अब तो कदम बढा,एक कदम तो आगे आ |"
किन्तु मेरे कदम दृश्यपटल पर अडिग खड़े थे |
उसके ललाट पर एक बड़ी-सी सिंदूरी लाल बिंदी थी ,जिसे आँचल से पोंछते हुए उसने कहा -" यह तो पूर्वजों की खून की बिंदी थी |" उसने अपनी मांग बताई , वह भी वैसे ही लाल रंग की थी | कहा -यह भी तो तेरे पूर्वजों का खून था जिससे मैंने अपनी मांग भरी थी |
अपने ही पतियों को मारकर उन्ही के खून से मांग भर कर मै सुहागिन रहा करती थी और शायद असंख्य पतियों की हत्या का पाप ही है जिसके प्रायश्चित में मै आज यह फल भोग रही हूँ | अफ़सोस तो यह है कि उनमे से एक भी मैंने जिन्दा नहीं छोडा,अन्यथा अपने ही हाथों मै अपनी मांग नहीं पोंछती | मुझे क्या मालूम था कि मेरी सासुओं की कोख किसी दिन इस प्रकार दगा दे जायेगी !
उसने यह कहते हुए मांग का खून भी पोंछ लिया पर मेरा खून तो शून्य बिंदु की शीतलता तक जमा हुआ था , जमा हुआ ही रहा |
मैंने देखा ,उस दुष्ट दुर्योधन ने निर्लज्जतापूर्वक अपना हाथ बढा कर उस रमणी को आबद्ध कर बलपूर्वक अपनी जांघ पर बैठा लिया | बाण लगी हुई हिरणी के समान धरती ने एक कातर चीत्कार की | यदि क्षीरसागर की नागश्य्या पर नारायण उस समय सोये न होते तो धरती की ऐसी करुणोत्पादक व्यथा से व्याकुल होकर सुदर्शन चक्र ले नंगे पैरों उसकी सहायता के लिए दौडे आते | धरती ने करुण रुदन किया | पहाडों को पिघलाने वाली और नदियों को सुन्न करने वाली उसकी एक हिचकी मेरे रोम रोम में वेदना के बांध तोड़ रही थी परन्तु दृश्यपटल पर खड़ी मेरी तस्वीर हिली भी नहीं | अकस्मात डूबते हुए गजराज ने अपनी सूंड से एक कमल पुष्प को तोड़कर भगवान की सहायता मांगी थी और उस धरती ने भी उसी प्रकार कमल के स्थान पर अपने हाथ को उठाकर चूडा दिखाया ; सिर्फ इतना ही कहा - यह तेरा पहनाया हुआ है |"
छ्नकता हुआ चूडा मेरी और चुनौती दे रहा था | मौन होकर भी उसने मुझे बहुत कुछ कह दिया ,फिर भी मै चुप खडा रहा |
अंत में उस दुर्योधन ने धरती के अधोवस्त्र का स्पर्श कर लिया | धरती जो अभी तक द्रोपदी बनी हुई थी सहसा क्रोध और अपमान की उत्तेजना से कालिका सी दिखाई देने लगी | छविगृह के सभी दर्शकों में कुहराम मच गया | आने वाले दृश्य को न देखने के लिए मैंने आँखे बंद करली तब मुझे उस मेदिनी का कंठस्वर सुनाई दिया ,- देखते क्या हो ? इस वस्त्र का भी अपहरण कर मेरे इस बेशर्म पतिदेव को दे दो ताकि यह इसे पहन ले ! मै तो इसे मर्द समझकर सधवा होने के भ्रम में थी पर यह तो जनाना ही नहीं ,नामर्द है |"
रील टूट गयी | छविगृह प्रकाश से जगमगा उठा | मेरे पास बैठा व्यक्ति मुझसे पूछने लगा -" भाई साहब ! क्या आप बता सकते है ,-यह कौन था जो भूमि का स्वामी बना हुआ चित्रपट पर आया था ? मै उसको परिचय नहीं बता सका | मैंने सावधानी से अपना मुंह उसकी और से फिर लिया ताकि वह मुझे पहचान कर भंडाफोड़ न कर दे कि कलाकार साहब यहीं बैठे है मैंने उसके प्रश्न का उत्तर मुंह घुमाये ही दिया -" नाम तो नहीं जानता पर शायद यह भी एक क्षत्रिय था |"
पडौसी दर्शक ने भोंहे ऊँची उठाकर आश्चर्य से कहा -" अच्छा !"
प्रकाश फिर बुझ गया ,लोगों की नजरे फिर दृश्यपट की और घूम गयी | मैंने भी छुटकारे की सांस ली |
चित्रपट चल रहा था और दृश्य बदलते जा रहे थे | 
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