पुनरागमन

स्वर्ग में मै चला जा रहा था | एक स्थान पर मैंने बहुत बड़ा शामियाना देखा | नीचे इन्द्र -वरुणाआदि देवता बैठे हुए थे | कोई सत्संग या उत्सव चल रहा था जो अब समाप्त हो गया था | मैंने देखा राम,कृष्ण ,अर्जुन ,भीम आदि भी वहीँ थे - उठ कर जा रहे थे | मै दौड़ा -दौड़ा उनके पीछे गया और अपना परिचय देने लगा -मै आप ही की संतान हूँ | आप लोग शायद मुझे नहीं पहचानते किन्तु मैंने मृत्यु लोक में आपकी बहुत सी तस्वीरें देखि है , इसलिए मैंने आपको देखते ही पहचान लिया | मै भी सूर्यवंशी हूँ | मैंने सिर झुका कर उनका अभिवादन किया , किन्तु उन्होंने मुझे आशीर्वाद नहीं दिया ,उल्टा दुत्कारा -'हट ,भाग जा यहाँ से ! तुम और हमारी संतान ! यह मुंह और मसूर की दाल ! चल भाग यहाँ से | लोगों को छलकपट से अपनाने की राजनीती मृत्युलोक में चला करती है | यहाँ हम नहीं ठगे जा सकते | तुम हमारी संतान नहीं हो | अपने बाप को त्याग कर दूसरो की संतान बनने में लज्जा नहीं आती ? क्या यही कलि युग का धर्म है ? हमने तो गुण रहित धर्म को भी श्रेष्ठ बताया था | हमारी परम्पराएं ही कुछ और थी | हमारी स्त्रियों के अपहरण पर हमने अपहर्ता के साम्राज्य और सर्वस्व का संहार कर दिया था और कल तुमारी जोरू धरती का अपहरण हुआ और तुमने परम्परा डाली है टुकर टुकर देखने की और आज तुम परम्परा डाल रहे हो तुम्हारी ही स्त्री को कुदृष्टि से देखने वाले का क्रिपभाजन बनने के लिए चाटुकारी करने की ! अपने श्रेष्ठ धर्म संस्कृति को छोड़कर तुम राह चलते हुए किसी भले आदमी को पकड़ कर बाप कहने लग जाते हो | भाग जाओ यहाँ से !' अभिमन्यु पास ही खडा था | उसने मेरे मुंह पर थूक दिया |
मै स्तम्भित ,लज्जित और किंकर्तव्य विमूढ़ सा खडा रहा | अपना समझ कर जिनके पास दौड़ा हुआ गया था ,उन्होंने ही मुझे तज दिया | वे चले गए और मै हारा , थका ,निराश होकर काफी देर तक खडा रहा | फिर सोचा इनका क्या दोष है ? मेरे और इनके बीच युगों का अंतर पड़ गया है | खून में भी अंतर आया ही होगा , शायद इसलिए इन्होने मुझे नहीं पहचाना होगा | चलो, अभी अभी जो मृत्युलोक से आए है -वे भी कहीं मिल सकते है | स्वर्ग पहुंचकर भी मै किसके पास ठहरूं ,सोचता सोचता चल पड़ा |
इस बार मुझे सुन्दर सुन्दर दृश्य और रमणीक स्थान कुछ भी अच्छे नहीं लगे | मै अपनी ही व्यथा और समस्याओं में उलझा हुआ आगे बढ़ गया था ,कि एक जगह कुछ परिचित से लोग दिखाई दिए | मैंने देखा महाबली पृथ्वीराज चौहान खड़े है ,पास ही महाराणा सांगा, प्रताप और हम्मीर खड़े है | मैंने उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और समाचार देना शुरू किया -" हे हिन्दू सम्राट ! आपने अनुपम बहादुरी का परिचय देकर भी जिस तख्त को खो दिया था ,उसे हमने वापस प्राप्त कर लिया है | शताब्दियों बाद आज हिंदुस्तान हिन्दुओं का हुआ | महाराणा संग्राम सिंह जी ! आपने जिस उद्देश्य के लिए दो लाख सेना इकट्ठी कर खानवा के युद्ध में संग्राम छेड़ा था फिर भी सफल नहीं हो सके ,उस सफलता को हमने बिना एक रक्त की बूंद बहाए ,बिना किसी की जान खोए ,केवल नारों और जुलूसों से ऐसे बाबर को समुद्र पार भगा दिया जिसके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था | महाराणा प्रताप सिंह जी ! आज आपका मेवाड़ स्वतंत्र है ,सारा राजस्थान ही नहीं ,समूचा भारत आजाद है | पच्चीस वर्ष तक कष्ट सहन कर हल्दी घाटी का लोमहर्षक युद्ध लड़कर भी आप जिन अरमानो को पूरा नहीं कर सके ,वे अरमान अब पूर्णत: पुरे हो गए है | आज आपके मेवाड़ में सुख और समृद्धि है ,लहलहाते हुए खेत है | वीरान मगरे भी अब इतने जन संकुचित हो गए है कि भूमि रखने की भी अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी गयी है |जिस चित्तोड़ के लिए आपने भूमि पर शयन किया ,घास की रोटियां खाई ,पत्तलों पर भोजन किया ,वही चित्तोड़ अब हमारा हो गया है | गाडोलिया लुहार उसमे विजयी होकर घुसे है | यदि आप अपनी पूर्व प्रतिज्ञानुसार स्वर्ग में भी धरती पर शयन और पत्तलों में भोजन करते हो तो अब ऐसा करना छोड़ दीजिए | इस आजादी की हम अनेक वर्षगाँठ मना चुके है | आज हम पूर्ण रूप से सुखी है | हमारे घरों में आज बीसियों भेडें और पच्चासों बकरियां है | अकेला मै तीन सहकारी समितियों का सदस्य था | विधानसभा व लोकसभा का भी लगातार पन्द्रह वर्षों तक सदस्य रह चूका हूँ | आपके वंशज अब भी हिंदुआ सूरज कहलाते है | हमें किसी चीज की कोई कमी नहीं है | राज्य करने से अब हमें छुट्टी मिल गयी है | घर बैठे ही हमें बड़ी बड़ी रकमे हाथ खर्च के लिए मिल जाया करती है | आपके और दुसरे उमरावों को अब न तो आवश्यक रूप से घोडे रखने पड़ते है और न युद्ध के लिए सदा तैयार रहना पड़ता है | घर बैठे ही २२ वर्ष तक उन्हें रुपया ब्याज सहित मिलता जावेगा |'
लेकिन इतने उत्साहप्रद समाचार सुनने के बाद भी उनमे से कोई नहीं बोला | पृथ्वीराज ने तो मुंह फिर लिया | सांगा ने नीचे देखना शुरू कर दिया | प्रताप कुछ क्रोधित दिखाई दे रहे रहे थे | परन्तु हम्मीर से चुप नहीं रहा गया ,बोला - ' शर्म नहीं आती बकवास करते ! हमारे घावों को फिर हरा करना चाहते हो | तुम तुम्हारा काला मुंह कही और जाकर करो | हमारे तो सारे इतिहास और परिश्रम पर तुमने पानी फिर दिया और फिर हमी से अपनी कायरता और नपुसंकता की प्रशंसा करवाना चाहते हो | धूर्त कहीं के ! भाग यहाँ से - भाग जा !' मै समझ नहीं पाया , आखिर उनकी अप्रसन्नता का कारण क्या था ? मैंने सोचा किसी संजीदे आदमी के पास जाऊं | उसके पास जाऊं जिसने कर्तव्य के लिए आराम से कभी रोटी भी नहीं खायी , जिसके सामने मारवाड़ (जोधपुर) जैसे राज्य का प्रलोभन भी सिर ऊँचा नहीं कर सका और अंत में कर्तव्य के लिए जिसने अपनी मातृभूमि को सैकड़ो मील दूर पीछे छोड़कर क्षिप्रा के एकांत किनारे अपनी समाधी बनाई | छोड़ने के बाद एक बार भी घूमकर अपने घर को नहीं देखा | उस वीर दुर्गादास के पास जाऊं ,शायद वह बेटा कहकर मुझे स्नेह्संबोधन देगा , मेरी राजनीती की प्रशंसा कर धैर्य रखने का आदेश देगा | सौभाग्यवश वे मुझे दिख ही गए ,मैंने उन्हें सारा हाल बताया - मारवाड़ का हाल बताया और यह भी बताया कि हम्मीर और अभिमन्यु किस बुरी तरह से मुझसे पेश आये थे | दुर्गाबाबा आखिर दुर्गाबाबा निकले | उन्होंने मुझे बड़े ध्यान और धैर्य से सुना | उनकी सहृदयता ने मुझे खूब प्रभावित किया पर ज्यों ही मै पेट भर बातें कह चूका , उन्होंने कहा - 'पर तुम आखिर यहाँ कैसे आये ?'
मैंने कहा ,- यह तो स्वर्ग है , कोई बुरी जगह तो है नहीं | सभी इसी की कामना करते है और मुझे तो यह धरती रूपी पत्नी त्याग पर ही अनायास ही प्राप्त हुआ है | पृथ्वी पर मेरे महान उत्तरदायित्वों की पूर्ति हो गयी और इसलिए भाग्यवानों की श्रेणी में मेरी गणना होकर फलस्वरूप यह स्वर्ग मिला है |'
उन्होंने कहा - ' जब तेरे जैसे सैकड़ों भाई बंधू नरक की यातनाओं से पृथ्वीलोक में कलबला रहे है , तब तुझे स्वर्ग के सुख भोग की लालसा प्राप्त ही कैसे हुई ? निर्दयी ! क्या स्वजनों की व्यथा और तेरे अपने समाज की व्याधि भी तेरा कलेजा नहीं कंपा सकी , जो तू ऐसे समय में स्वर्गिक सुखों की खोज में उन्हें छोड़कर यहाँ आया है ? मृत्युलोक में तो तू उनके लिए इतने गाल बजाता था , खूंटे तोड़ता था और अब उनके लिए तेरे अंत:करण में कोई माया -ममता और स्नेहादि भाव नहीं रहे | तुम आदमी हो या घनचक्कर !'
उनकी आँख से निकले हुए तेज के सामने मेरे समस्त तर्क और तत्व ज्ञान की घिग्घी बंध गयी | जिस स्वर्ग -प्राप्ति के लिए अभी-अभी मै इतना पुलकित हो रहा था और भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था वही स्वर्ग अब मुझे काटता हुआ दिखाई दे रहा था | इतने बड़े लोक में सिर छिपाने जितनी भी जगह नहीं दिखाई दे रही थी | इतने में ही एक पत्र -वाहक ने आकर मुझे एक बंद लिफाफा दिया | उत्सुकता और भय -मिश्रित भावो से मैंने उसे खोल डाला | वह निमंत्रण पत्र था जो किसी इतरलोक से आया हुआ था ,जिसमे मुझे भोजन ,विश्राम और निवास तक के लिए आमंत्रित किया गया था | निमन्त्रण के नीचे विभीषण , शल्य , जयचंद , भीम सिंह जसड़ोत ,शिलादित्य और न जाने कितनो के हस्ताक्षर थे | स्वर्ग छोड़ने का मैंने तत्काल ही निर्णय कर लिया और मुट्ठियाँ बंद कर वहां से भागा | अचानक मार्ग में उर्वशी से टकरा गया | उसने आँखे तरेर कर कहा - ' आदमी हो या घनचक्कर ?' मै उसे प्रत्युतर देने ही वाला था -कि मै पथ के बाँई और चल रहा था , मेरी कोई गलती नहीं थी |' पर मै कुछ कहूँ उससे पहले ही नारद जी का भीषण अट्टहास सुनाई दिया - ' घनचक्कर नहीं यह भी एक क्षत्रिय है |'
एक छत पर से मेनका में अपना गला निकाला और मुझे देखकर खिन -खिन का हंसने लगी |
चित्रपट चल रहा था दृश्य बदल रहे थे | ;;
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