Saturday 7 September 2013

ठाकुर देशराज

ठाकुर देशराज का जीवन परिचय
ठाकुर देशराज ने अनेक किताबें लिखी हैं परन्तु उनका जीवन परिचय देने वाली पुस्तक का अभाव था. यह कार्य पूर्ण किया है लेखक हरभान सिंह 'जिन्दा ने वर्ष २००३ में. राजस्थान स्वर्ण जयंती प्रकाशन समिति जयपुर के लिए राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी जयपुर ने 'राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा' पुस्तक माला में अमर स्वाधीनता सेनानी ठाकुर देशराज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है. ठाकुर देशराज के बारे में नीचे दिया गया विवरण इसी पुस्तक से लिया गया है.
भरतपुर जनपद के सर्वाधिक जनसंख्या वाले गाँव जघीना में एक नगण्य से भूमिहीन किसान परिवार में ठाकुर छीतरसिंह सोगरवार के घर माघ शुक्ला एकादशी संवत -१९५२ (सन १८९५) को देशराज का जन्म हुआ. पत्थर पर भी कार्यकर्ता पैदा कर संघर्षों को सफलता के सोपान तक पहुँचाने की क्षमता रखने वाले तथा पीड़ितों के सच्चे साथी की छवि धारण करने वाले ठाकुर देशराज के व्यक्तित्व का मूल्यांकन उनकी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न कृतित्वों के माध्यम से ही किया जा सकता है. शोषितों के सच्चे हिमायती की पहचान रखने वाला यह इन्सान समाज सुधारक, सफल आन्दोलनकर्ता, प्रमाणिक इतिहासकार के साथ साथ एक विद्रोही पत्रकार के रूप में भी बड़ी हैसियत का धनी था. ठाकुर साहब ने अपना सार्वजनिक जीवन स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित होकर प्रारंभ किया था. चंद दिन राजकीय प्रायमरी स्कूल में शिक्षक के पद पर सेवारत रहकर नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और देश सेवा और समाज सेवा का जो बीड़ा उठाया तो फिर कदम पीछे नहीं हटाये.

राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश

ठाकुर देश राज का कर्मठ व्यक्तित्व मात्र समाज सुधर के कार्यों से संतुष्ट नहीं हुआ. यही कारण रहा कि उनके हौसलों से भरपूर कदम राजनीतिक क्षेत्र में भी पूरे जोश-खरोश के साथ उतरे. इस क्रम में उनका नाम एक जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप में जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने की दृष्टि से ६ जनवरी १९२९ को स्थापित 'भरतपुर प्रजा संघ' नाम के संगठन मंत्री के रूप में उजागर हुआ. इस संस्था के अध्यक्ष राव गोपी लाल यादव बनाये गए थे. [17] इस संस्था की गतिविधियों से सरकार विचलित हुई और वह जन-आन्दोलन और जन-भावना को कुचलने के लिए कटिबद्ध हो गई. 'भरतपुर प्रजा संघ' ने भरतपुर की जनता को वैचारिक तरीके से जन आन्दोलन के लिए तैयार करने की निति अपनाई. भरतपुर के संस्थापक महाराजा सूरजमल की जयंती के अवसर पर श्री हिंदी साहित्य समिति के समीप ६ जनवरी १९२९ को एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया. इसका विषय था 'यथा रजा तथा प्रजा अथवा यथा प्रजा तथा रजा' . इसके मुख्य वक्ता थे प्रजा संघ के मंत्री ठाकुर देशराज और अध्यक्ष गोपी लाल यादव. इन दोनों वक्ताओं ने इतने विद्वता और ओजस्विता से विचार व्यक्त किये कि बहुत से नवयुवकों को एक नै और कुछ कर गुजरने की प्रेरणा प्राप्त हुई. स्वतंत्रता संग्राम के एक बड़े सेनानी श्री जगन्नाथ कक्कड़ के अनुसार उस समय ऐसे लगाने लगा था मानो एक क्रांति आ गई और बहुत से नवयुवक जनहित पर मर मिटने के लिए तैयार हो गए रियासत के तत्कालीन अंगरेज दीवान मिस्टर मैकेंजी के समक्ष जब इन दोनों वक्ताओं के भाषणों की रिपोर्ट का सारांश पहुंचा तो वे बोखला गए और ठाकुर देशराज को जेल के सींखचों में बंद करने में अपनी और सरकार की भलाई समझी. उसने ठाकुर साहब के वारंट पर खुद अपनी कलम से लिखा था -
मैं देशराज को रजिराते हिंद की धरा १२४-अ के तहत गिरफ्तार करने का हुक्म देता हूँ. उसे मेरी आज्ञा के बिना नहीं छोड़ा जाये."
यहाँ गौरतलब करने योग्य बात यह है कि यह धारा लगने का संयोग पाने वाले ठाकुर देशराज भारत में लाला लाजपतराय के बाद दूसरे व्यक्ति होना प्रमाणित है. [18]
पहली गिरफ़्तारी और रिहाई

ठाकुर साहब की पहली गिरफ़्तारी १३ जनवरी १९२९ को भरतपुर से ४३ मील दूर जुरहरा नामक कस्बे में हुई. पुलिस द्वारा उन्हें भूके प्यासे इक्के से बांध कर नंगे पैर लाकर एक तंग काल कोठरी में पूरे १०८ दिन रखा गया था. उनके लिए उस भयानकत ठण्ड में ओढ़ने बिछाने की कोई व्यवस्था न थी. जब ठण्ड के मारे कंप-कम्पी बांध जाती थी तो शारीर में गर्मी पैदा करने के लिए दंड बैठक की जाती थी. [19]
जेल से ठाकुर देशराज की रिहाई के लिए आर्य समाज दिल्ली के बहुत बड़े नेता श्री विद्यावाचस्पति द्वारा दिल्ली से भरतपुर आकर अँगरेज दीवान को अल्टीमेटम देने के बाद हुई थी जिसमें ठाकुर साहब को सरकारी यातनाओं द्वारा कुछ भी होने के भयंकर परिणाम भुगतने के लिए तैया रहने की चुनौती दी गई थी. [20]
इस मुकदमें में भरतपुर का एक भी वकील उनकी वकालत करने का सहस नहीं जुटा पाया था. राजद्रोह साबित करने हेतु प्रमाण नहीं थे लेकिन झूठे जुटाए गए. गवाह नहीं थे लेकिन लालच देकर गवाह भाड़े पर लाये गए. वकील नहीं थे इसलिए ठाकुर साहब को गवाहों से स्वयं ही बहस करनी पड़ी. ठाकुर साहब ने पुलिस के गवाहों से पूछा - मैंने अपने भाषण में स्वराज्य या स्वराज या शिवराज या श्योराज शब्द का प्रयोग किया था. पुलिस गवाहों के निरुत्तर होने पर विद्वान न्यायाधीश को अपने फैसले में लिखना पड़ा कि पुलिस सबूत जुटाने और देशराज से बहस में विफल रही अतः उन्हें सम्मान के साथ बरी किया गया. [21]
गोठडा (सीकर) का जलसा सन 1938

जयपुर सीकर प्रकरण में शेखावाटी जाट किसान पंचायत ने जयपुर का साथ दिया था. विजयोत्सव के रूप में शेखावाटी जाट किसान पंचायत का वार्षिक जलसा गोठडा गाँव में 11 व 12 सितम्बर 1938 को शिवदानसिंह अलीगढ की अध्यक्षता में हुआ जिसमें 10-11 हजार किसान, जिनमें 500 स्त्रियाँ थी, शामिल हुए. सम्मलेन में उपस्थ्तित प्रमुख नेताओं में आप भी थे. [22]
शेखावाटी किसान आन्दोलन में भूमिका

१९३० के अंतिम दिनों में ठाकुर साहब ने राजद्रोह के मुकदमे से ससम्मान रिहा होने के बाद आगरा में अपना कार्य क्षेत्र बनाया. इस बीच वे राजस्थान की अन्य रियासतों में तिहरी दासता से ग्रस्त एवं त्रस्त किसानों की दशा से परिचित हो चुके थे तथा मानव अधिकारों के हनन की संघर्षपूर्ण खिलाफत करने का मानस बना चुके थे.
शेखावाटी के किसानों की बदहालात चरम पर पहुँच चुकी थी. ठिकानेदार और जागीरदार भूराजस्व के अलावा ८० प्रकार के टैक्स वसूल कर किसानों की कमर तोड़ देते थे. जबरदस्ती लादे गए इन करों को लाग-बाग़ की संज्ञा दी गयी थी. लाग-बाग़ में मलवा, खुंटाबंदी, पानचराई, खूट ग्वार का लादा, कड़वी का लादा, कारेड़ का लादा, हलवेठिया, पालड़ा मेख, न्यौता, कारज खर्च, बाईजी का हाथलेवा, कुंवर-कलेवा, लिखिवा की लाग, जाजम खर्च, ढोलबाग, धुंआ बांछ, हरी, हरी का ब्याज, कांसा लाग, नातालाग, मदे की लाग, चड़स की लाग, श्रीजी की लाग, भगवद की लाग, सहने की लाग, पटवारी की लाग, बलाई की लाग, कोटड़ी खर्च, नाई की लाग, धानकी धोबी तथा कोली की लाग आदि उल्लेखनीय हैं. सीकर के ठिकानेदार द्वारा तो एक साल हरिद्वार स्नान का खर्च भी किसानों से वसूला गया था. नई-नई मोटर गाड़ियों तथा घोड़ा गाड़ियों की कीमत तो प्राय: किसानों से ही वसूल की जाती थी. बिजली व मोटरों के रख-रखाव का व्यय भी किसानों से वसूला जाता था.
उस समय शेखावाटी के किसानों की पशुवत हालत को जान कर रोंगटे खड़े हो जाते थे. कुछ चंद ठिकानेदारों की सुविधा और मनोविनोद के लिए भेंट चढ़ाना लाजमी था. किसान अपने पुत्र-पुत्रियों के नाम के आगे सिंह नहीं लगा सकते थे. किसान सामंत वर्ग के सामने खाट पर नहीं बैठ सकता था. हाथी या घोड़े की सवारी वर्जित थी. गाँव में आने वाले दुल्हों को पहले जागीरदार को भेंट देना अनिवार्य था.
शेखावाटी में आर्य समाज की स्थापना - ठाकुर देशराज को शेखावाटी के किसानों की हालत का पता आर्य समाज के जलसों में शिरकत करने के फल स्वरुप हुआ. शेखावाटी में आर्य समाज को प्रतिष्ठापित करने वाले सेठ देवीबक्स सर्राफ थे, जिन्होंने १९२७ में मंडावा में आर्य समाज की स्थापना कर जलसा किया. मास्टर कालीचरण एवं पंडित खेमराज ने इस जलसे के बाद नारनौल से रींगस तक जाटों में यज्ञोपवित धारण करवाए. आर्य समाज का दूसरा जलसा १९२९ में फिर मंडावा में हुआ. सेठ देवीबक्स ने इस जलसे में भरतपुर से ठाकुर देशराज और कुंवर रतनसिंह को आमंत्रित किया. जलसे में करीब पांच हजार जाटों ने भाग लिया. अखिल भारतीय सार्वदेशिक सभा के स्वामी सर्वदानंद को आर्य समाज मंदिर के उद्घाटन के लिए बुलाया. मंडावा ठाकुर ने मंदिर में ताला लगवा दिया और जलसे को विफल करने हेंतु गुंडे भेजे. परन्तु सरदार हरलाल सिंह ने मंदिर का ताला तोड़ कर जलसा किया. इस जलसे के उपरांत जाटों में बड़ी हिम्मत और चेतना का संचार हुआ.[23]
किसानों के परम हितैषी

ठाकुर देशराज आच्चे अर्थों में किसानों के परम हितैषी थे. उनके कल्याण के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे. इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण २१ नवम्बर १९४४ को भरतपुर की रियासत सरकार द्वारा लागु 'रहन छुड़ाऊ कानून' है जिसे स्वीकृत कराने में ठाकुर साहब की महत्वपूर्ण भूमिका रही. इस कानून के अंतर्गत मई तथा जून महीनों में रहनशुदा सभी जमीनें किसानों के सुपुर्द किया जाना अनिवार्य कर दिया गया. रियासती प्रशासन ने कानून के क्रियान्वन हेतु गांवों में जाकर किसानों को रहनशुदा जमीनें छुड़ाकर वापस कब्ज़ा दिलाने का कार्यक्रम बनाया ताकि उन्हें मुकदमेबाजी के झंझटों से बचाया जा सके.सरकार ने इसे किसानों का कर्जा सरकारी खजाने से चुकाने का प्रावधान किया. बाद में इस राशि को अगले २५ वर्षों में आसान किस्तों में वसूलने का प्रावधान था. इस कानून से किसानों की हालत में जबरदस्त परिवर्तन हुआ. [24]
बृज जया प्रतिनिधि समिति

१९ अक्टूबर १९४२ को दशहरा दरबार के अवसर पर महाराजा ब्रिजेन्द्र सिंह ने भरतपुर रियासत में बृज जया प्रितिनिधि समिति की स्थापना की जिसे एक प्रकार से वहां की धारासभा कहा जा सकता है. इस दृष्टि से भरतपुर पहली रियासत थी जिसने अन्य रियासतों के मुकाबले सबसे पहले ऐसी निर्वाचित प्रितिनिधि सभा स्थापित की. इसका प्रथम अध्यक्ष राजबहादुर शिवगोपाल माथुर को नामजद किया गया तथा उपाध्यक्ष ठाकुर देशराज को चुना गया जो भरतपुर तहसील के ग्रामीण क्षेत्र से प्रतिनिधि चुने गए थे. बाद में कर्नल घमण्डीसिंह अध्यक्ष नामजद किये गए. इस समिति को जनता से जुड़े हुए विभिन्न मामलों में बहस करने का स्वतंत्र अधिकार दिया गया. [25]
भरतपुर के राजस्व मंत्री के रूप में

५ फ़रवरी १९४६ को बसंत दरबार के अवसर पर महाराजा भरतपुर ने उत्तरदायी शासन के रूप में लोकप्रिय मंत्रिमंडल बनाने की घोषणा की जिसमें ठाकुर देशराज राजस्व मंत्री बनाये गए. अन्य मंत्रियों में मास्टर आदित्येन्द्र, राव गोपीलाल यादव तथा बाबू हरिदत्त अदि शामिल थे. [26]
सूरजमल जयंती और भरतपुर-सप्ताह का आयोजन

ठाकुर देशराज (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.-675) लिखते हैं कि महाराज श्रीकृष्णसिंह के निर्वासन के समय से ही राजपरिवार और प्रजाजनों पर विपत्तियां आनी आरम्भ हो गई थीं। उनके स्वर्गवास के पश्चात् तो कुछेक पुलिस के उच्च अधिकारियों ने अन्याय की हद कर दी थी। सुपरिण्टेंडेण्ट पुलिस मुहम्मद नकी को तो उसके काले कारनामों के लिए भरतपुर की जनता सदैव याद रखेगी। धार्मिक कृत्यों पर उसने इतनी पाबन्दियां लगवाईं कि हिन्दु जनता कसक गई। यही क्यों, भरतपुर-राज्यवंश के बुजुर्गों के स्मृति-दिवस न मनाने देने के लिए भी पाबन्दी लगाई गई। जिन लोगों ने हिम्मत करके अपने राज के संस्थापकों की जयंतियां मनाई, उनके वारंट काटे गए। ऐसे लोगों में ही इस इतिहास के लेखक (ठाकुर देशराज) का भी नाम आता है। आज तक उसे भरतपुर की पुलिस के रजिस्टरों में ‘पोलीटिकल सस्पैक्ट क्लाए ए’ लिखा जाता है। बीकानेर के सुप्रसिद्ध राजनैतिक केस में भरतपुर पुलिस के सी. आई. डी. इन्सपेक्टर ने यही बात अपनी गवाही में कही थी। उसका एक ही कसूर था कि उसने दीवान मैकेंजी और एस. पी. नकी मुहम्मद के भय-प्रदर्शन की कोई परवाह न करके 6 जनवरी सन् 1928 ई. को महाराज सूरजमल की जयंती का आयोजन किया और महाराज कृष्णसिंह की जय बोली। इसी अपराध के लिए दीवान मि. मैंकेंजी ने अपने हाथ से वारण्ट पर लिखा था
“मैं देशराज को दफा 124 में गिरफ्तार करने का हुक्म देता हूं और उसे जमानत पर भी बिना मेरे हुक्म के न छोड़ा जाए।”
हवालातों के अन्दर तकलीफें दी गई, पुलिसमैनों के कड़वे वचन सुनने पड़े, पूरे एक सौ आठ दिन तंग किया गया। सबूत न थे, फिर भी जुटाए गए। गवाह न थे, लालच देकर बनाए गए - उनको तंग करके गवाही देने पर विवश किया गया। किन्तु आखिर जज को यही कहना पड़ा कि पुलिस सबूत जुटाने में और देशराज से बहस करने में फेल हुई।
जिस किसी प्रजाजन और राजकर्मचारी पर यह सन्देह हुआ कि यह जाट-हितैषी और स्वर्गीय महाराज श्रीकृष्ण का भक्त है, उसे दण्ड दिया गया। दीवान ने महाराज और महारानी तथा बाबा साहब (श्री रामसिंह) के अंत्येष्ठि कर्मों के समय पर सम्मानित भाव से उपेक्षा की। आखिर जाटों के लिए यह बात असहय्य हो गई और सन् 1929 ई. के दिसम्बर के अन्तिम दिनों में भरतपुर-सप्ताह मनाने का आयोजन हुआ। सारे भारत के जाटों ने भरतपुर के दीवान मैंकेंजी और मियां नकी की अनुचित हरकतों की गांव-गांव और नगर-नगर में सभाएं करके निन्दा की। राव बहादुर चौधरी छोटूराम जी रोहतक, राव बहादुर चौधरी अमरसिंह जी पाली, ठाकुर झम्मनसिंह जी एडवोकेट अलीगढ़ और कुंवर हुक्मसिंह जी रईस आंगई जैसे प्रसिद्ध जाट नेताओं ने देहातों में पैदल जा-जा कर जाट-सप्ताह में भाग लिया। आगरा जिला में कुंवर रतनसिंह, पं. रेवतीशरण, बाबू नाथमल, ठाकुर माधौसिंह और लेखक ने रात-दिन करके जनता तक भरतपुर की घटनाओं को पहुंचाया। महासभा ने उन्हीं दिनों आगरे में एक विशेष अधिवेशन चौधरी छोटूराम जी रोहतक के सभापतित्व में करके महाराज श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी देव के विलायत भेजने और दीवान के राजसी सामान को मिट्टी के मोल नीलाम करने वाली उसकी पक्षपातिनी नीति के विरोध में प्रस्ताव पास किए। इस समय भरतपुर के हित के लिए महाराज राजा श्री उदयभानसिंह देव ने सरकार के पास काफी सिफारिशें भेजीं।
पंचायती राज के हिमायती

ठाकुर देशराज जनसामान्य से जुड़े हुए नेता थे तथा वे आजीवन विभिन्न रूपों में जनता की सेवा करते रहे. उन्होंने भरतपुर रियासत में ग्राम पंचायतों की स्थापना में विशेष रूचि ली तथा राजस्थान के गठन के उपरांत अपने गाँव जघीना की ग्राम पंचायत में निर्विरोध सरपंच चुने गए. इस दौरान आपने जघीना को जिला मुख्यालय भरतपुर से सड़क मार्ग से जुड़वाने, पाठशाला भवन में नये कमरों का निर्माण तथा शाला परिसर में खाली पड़े भूखंड में क्रीडांगण का निर्माण आदि विकास कार्य करवाए. [27]
बाद में जब तहसील स्तर पर राज्य में तहसील पंचायतों का गठन हुआ तब ठाकुर साहब तहसील पंचायत भरतपुर के सरपंच चुने गए. इसी अवधी में जयपुर में राज्य सरकार ने राज्य स्तरीय पंचायत सम्मलेन का आयोजन किया और तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने सम्मलेन का उद्घाटन किया, तब ठाकुर देशराज सम्मलेन के स्वागताध्यक्ष मनोनीत किये गए. [28]
इसी क्रम में अक्टूबर १९५९ में जब देश में सबसे पहले राजस्थान में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण योजना का सूत्रपात हुआ और नागौर में २ अक्टूबर १९५९ को पंडित जवाहरलाल नेहरु ने नए पंचायती राज का दीपक जलाकर श्रीगणेश किया तब नयी व्यवस्था में ठाकुर देशराज सेवर पंचायत समिति के प्रधान चुने गए. बाद में १९६२ में इसी पद पर आप पुन: चुने गए.

इतिहासकार के रूप में

जाट इतिहास (१९३४) - ठाकुर देशराज सफल राजनेता, समाजसेवी और कुशल संगठक के साथ ही प्रमाणिक इतिहासकार और जागरूक पत्रकार भी थे. उन्होंने सर्वप्रथान १९३१ में 'जाट इतिहास' का लेखन प्रारंभ किया जो सन १९३४ में पूरा हुआ. ५४० पृष्ठीय इस विशाल ग्रन्थ की भूमिका 'वीर अर्जुन' के यशस्वी संपादक श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति ने लिखी तथा श्री बृजेन्द्र साहित्य समिति आगरा ने इसे प्रकाशित किया था. यह अत्यंत खोजपूर्ण विशाल ग्रन्थ जाट समाज की उत्पति और विकास पर आज भी प्रमाणिक ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठापित है. इस ग्रन्थ ने यह सिद्ध कर दिया कि केवल जन्म के आधार पर अपने आप को कुलीन घोषित करने वाला सामंती वर्ग ही समाज का भाग्य विधाता नहीं है, अपने पुरुषार्थ और परिश्रम से रोटी कमाने वाले मेहनतकश समाज को निम्न श्रेणी का समझना उसके साथ नाइंसाफी है. [30]
ठाकुर देशराज के 'जाट इतिहास' में तत्कालीन मिथकों को खंडित करने वाले कई तथ्य समाहित थे. उन्होंने पुस्तक में प्रतिपादित किया कि अतीत में राजपूत कोई जाति नहीं थी बल्कि उसका अद्भव जाट, अहीर और गुजरों से हुआ है. इससे राजपूतों में आक्रोश व्याप्त हो गया और दोनों जातियों में परस्पर वैमनस्य बढ़ गया. इस हालत में संघर्ष टालने के लिए कुंवर हुकमसिंह शाहपुरा आगे आये और उनके प्रयत्न से दयानंद अर्द्ध शताब्दी समारोह के अवसर पर अजमेर में जाट, राजपूत, गुजर एवं अहीरों की बैठक बुलाई गई. शेखावाटी से नेतराम सिंह गौरीर एवं सरदार हर लाल सिंह के नेतृत्व में एक बड़ा दल इसमें भाग लेने के लिए गया. शाहपुरा नरेश ने इस अवसर पर कहा कि हमें जातियों की ऊंचता एवं नीचता को स्थान नहीं देना चाहिए. मैं यह सोच भी नहीं सकता कि कोई व्यक्ति , जो इतिहास लिख रहा है वह जाटों को ऊँचा और राजपूतों को नीचा दिखाने की चेष्ठा करेगा. यह इशारा ठाकुर देशराज की और था. ठाकुर देशराज ने तुरंत उठकर इसका प्रतिवाद किया और कहा कि उन्होंने जाट इतिहास को राजपूत इतिहास की तरह नहीं लिखा है जिनमें जाटों को गिराने की चेष्ठा की गई है - जिनमें केवल राजपूतों को समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थापित करने की कोशिश की गई है. ऐतिहासिक सच्चाई प्रकट करने में यदि किसी का मद भंग होता है तो उनके पास कोई उपाय नहीं है. उन्होंने सारी बात ऐतिहासिक तथ्यों पर केन्द्रित रखी जिसका किसी के पास जवाब नहीं था. [31]
मारवाड़ का जाट इतिहास (१९५४) - १९३४ में सीकर में आयोजित जाट प्रजापति महायज्ञ के अवसर पर ठाकुर देशराज ने 'जाट इतिहास' प्रकाशित कराया, तब से ही मारवाड़ के नेता चौधरी मूलचन्दजी के मन में लगन लगी कि मारवाड़ के जाटों का भी विस्तृत एवं प्रमाणिक रूप से इतिहास लिखवाया जाए क्योंकि 'जाट इतिहास' में मारवाड़ के जाटों के बारे में बहुत कम लिखा है । तभी से आप ठाकुर देशराज जी से बार-बार आग्रह करते रहे । आख़िर में आपका यह प्रयत्न सफल रहा और ठाकुर देशराज जी ने १९४३ से १९५३ तक मारवाड़ की यात्राएं की, उनके साथ आप भी रहे, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गांवों व शहरों में घूमे, शोध सामग्री एकत्रित की, खर्चे का प्रबंध किया और १९५४ में "मारवाड़ का जाट इतिहास" नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराने में सफल रहे ।
सिक्ख इतिहास (१९५४) - इसी प्रकार ठाकुर देशराज ने दूसरा बड़ा एतिहासिक ग्रन्थ 'सिक्ख इतिहास' लिखा जो दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. विद्वानों कि दृष्टि में इस ग्रन्थ को सिक्ख जाती का 'एन्सायक्लोपीडिया' कहा जा सकता है. इसके प्रकाशन से पूर्व हिंदी में सिक्ख समाज पर कोई अन्य विषद और प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था. [32]
गुरुमत दर्शन - इसके अलावा आपकी एक और पुस्तक 'गुरुमत दर्शन' प्रकाशित हुई जिसकी भी विद्वत जगत में काफी प्रशंसा हुई. [33]
अन्य प्रकाशित ग्रंथों में भरतपुर के देशभक्त राजा किशन सिंह के सन्दर्भ में 'नरेन्द्र केशरी', 'वीर तेजाजी की जीवनी' 'राष्ट्र निर्माता', 'शेखावाटी की जागृति', 'किसान आन्दोलन के चार दशक', 'आर्थिक कहानियां' और 'भारत के किसान जनसेवक' अदि प्रमुख हैं. मृत्यु से पूर्व आप 'बुद्ध से पूर्व का भारत' लिखने में अपना योगदान कर रहे थे जो अभी तक अप्रकाशित है. [34]
सफल पत्रकार

ठाकुर साहब न केवल समाज-सुधारक व पत्थर पर भी कार्यकर्ता पैदा कर संघर्ष को शिखर तक पहुँचाने वाले आन्दोलनकारी एवं साहित्यकार थे बल्कि अपनी लेखनी के चमत्कार से शोषित जन में जान फूँकनेवाले पत्रकार भी थे. तत्कालीन 'गणेश', 'जाटवीर', तथा 'राजस्थान सन्देश' आदि दर्जनों समाचार पत्रों के माध्यम से आप शेखावाटी के किसान आंदोलनों, लोहारू नवाब के अत्याचारों, सीकर के कूदन गाँव के गोलीकाण्ड आदि घटनाओं, उत्तर भारत के समस्त देशी राज्यों में साम्राज्यवादी अंग्रेजों की छत्रछाया में राजाओं, जागीरदारों तथा ठिकानेदारों के शोषण एवं नाइंसाफियों को निर्भीकतापूर्वक उजागर करते रहे. उनके द्वारा सम्पादित समाचार-पत्रों का अनेक रियासतों में प्रवेश निषेध कर दिया गया. उनके अखबारों ने किसानों की आवाज तथा उनके आन्दोलन की गूँज हिंदुस्तान के जन-जन तक ही सिमित नहीं थी बल्कि ब्रिटेन के प्रमुख पत्रों व हॉउस ऑफ़ कामन्स में भी गूंजी. तत्कालीन हॉउस ऑफ़ कामन्स में उन दिनों सबसे ज्यादा सवाल जागीरदारों तथा किसानों के मध्य उत्पन्न तनाओं के सम्बन्ध में होते थे जिनसे ब्रिटिश सरकार बुरी तरह त्रस्त रहती थी. ठाकुर साहब की इस मुहीम के कारण समाज-सुधारकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई जो हमेशा गलत मूल्यों के विरुद्ध तथा स्वस्थ परम्पराओं के आजीवन पक्षधर रहे. [35]
पारिवारिक जीवन

ठाकुर साहब को जीवन की ऊँचाइयों तक पहुँचाने में आपकी पहली पत्नी श्रीमती उत्तमा देवी का महत्वपूर्ण योग रहा है जो आगरा जिले के कठवारी ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार से थी. वे ठाकुर साहब के साथ सुख-दुःख की हर घड़ी में सच्ची अर्द्धांगिनी सिद्ध हुई. शेखावाटी के किसान आन्दोलन में हर मोर्चे पर आर्य समाज के भजनोपदेशक के रूप में सक्रीय सहयोग देने वाले और सामंती तत्वों के कोपभाजन बन अनेक पीड़ाओं को हंसते-हंसते सहन करने वाले ठाकुर हुकम सिंह श्रीमती उत्तम देवी के सगे भाई थे. [36]
ठाकुर देशराज की पहली पत्नी की असमय मृत्यु के कारण ठाकुर साहब की दूसरी शादी अछनेरा के समीप अरदाया गाँव में श्रीमती त्रिवेणी देवी के साथ हुई. श्रीमती त्रिवेणी भी श्रीमती उत्तमा देवी के समान ही ठाकुर साहब की सच्चे अर्थों में जीवनसंगिनी थी. वे स्वतंत्रता आन्दोलन में भी निरंतर सक्रिय रहीं तथा डेढ़ वर्ष के कारावास की सजा भी भोगी. [37]
दोनों पत्नियों के अलावा ठाकुर साहब का साथ संकट की घड़ियों में देने वाले उनके अनुज खड़गसिंह थे. ठाकुर साहब द्वारा लिखे गए संस्मरण 'मेरी जेल यात्रा के १०८ दिन' में इनका अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है. ठाकुर साहब के एक मात्र पुत्र हरिसिंह वर्तमान में एक सहकारी बैंक में मैनेजर पद पर कार्यरत हैं. [38]
स्वर्गवास

ठाकुर देशराज ने १७ अप्रेल १९७० की ब्रह्म्बेला में स्नानादि से निवृत होकर ईश वंदना के दौरान अपनी इहलीला को विराम दिया. 

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